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निपटाया जा सकता है । विवादास्पद तथ्यों के प्रति समाधान की उपलब्धि भी सहज हो गई है।
इस प्रकार जैन धर्म एक वैज्ञानिक, जीव-कल्याणकारी एवं समाज सुधारवादी, विवेकाथित धर्म प्रतीत होता है। इसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त अनूठे हैं तथा अन्य धर्मों से पृथक् महत्त्व रखते हैं। इस धर्म की सैद्धान्तिक मौलिकता ही प्रधान कारण है जो कि राज्याश्रय प्राप्त न होने पर भी इस धर्म का स्थायित्व बना हुआ है। और ऐसे समाज से वह गौरवान्वित है जो सुखी और समृद्ध है । तथा समृद्धता से जो स्वयं के विवेकवान् होने का प्रमाण दे रही है ।
धर्म की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि "धर्म वह है जो समीचीन अर्थात् वादी प्रतिवादियों द्वारा निराबाधित हो, कर्मबन्धनों का विनाशक हो, और जीवों को जो संसार के दुःखों से निकालकर उत्तम सुख की ओर ले जावे।" इस धार्मिक व्याख्या से भी यही प्रतीत होता है कि जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जो निस्पृही एवं जीव हितैषी है, जिसे धर्म संज्ञा दी जा सकती है। जीवकल्याण की सर्वोपरि भावना इस धर्म की महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक देन है । अतः शान्त्यर्थ यही धर्म आचरणीय प्रतीत होता है ।
धन का सदुपयोग अन्यायावितिष्ठति । प्राप्ते त्वेकादशे वर्षे समूलं च विनश्यति ॥
अन्याय से कमाया हुआ धन केवल दस वर्ष तक स्थिर रहता है और ग्यारहवाँ वर्ष प्रारम्भ होते ही वह समूल नष्ट हो जाता है । इसलिए न्यायपूर्वक धन कमाकर उसके चार भाग करने चाहिए। पहला भाग दान-धर्म में खर्च करें, दूसरा कुटम्बियों के पालन-पोषण में तीसरा आपत्तिकाल के लिए कहीं सुरक्षित रूप से रख दें तथा चौथा भाग व्यापार में लगाना चाहिए इस प्रकार का नियम बनाकर धर्मात्मा श्रावकों को धर्म संचय करते रहना चाहिए। धर्म करने से हमारा धन कभी नहीं घटता । वह तो दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है। कहा भी है कि
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प्यासे पक्षी के पिये घटे न सरिता नीर । धर्म किए धन ना घटे जो सहाय जिन वीर ॥
अर्थात् जिस प्रकार पक्षियों के पानी पीने से सरिता का नीर कम नहीं होता, उसी प्रकार जिनेश्वर भगवान् की शरण लेकर धर्म करने से धन कभी नहीं घटता । धन दौलत क्षणभंगुर है। वह किसी के पास स्थिर होकर रहने वाली नहीं है । जिस प्रकार पानी के बुद-बुदे बरसात में उठते हैं और थोड़ी देर बाद वे नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार हमारा धन ऐश्वर्य क्षणिक है
दौलत पाय न कीजिए सपने में अभिमान । चंचल जल दिन चारि को ठाऊं न रहत निदान ॥ ठाऊ न रहत निदान जियत जग में यश लीजै । मीठे बचन सुनाय विनय सब हो को कीजै ॥
--आचार्य श्री देशभूषण, उपदेश सारसंग्रह, कोली १९७९ १० १३८, १४९, १६० से उत
जैन तत्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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