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अस्तित्ववादी दर्शन में व्यक्तिगत स्वातंत्र्य पर जोर है तो साम्यवादी दर्शन में सामाजिक समानता पर । इन समान एवं विषम विचार-प्रत्ययों के आधार पर क्या नये युग का धर्म एवं दर्शन निर्मित किया जा सकता है ?
हम देखते हैं कि विज्ञान ने शक्ति दी है। अस्तित्ववादी दर्शन ने स्वातंत्र्य चेतना प्रदान की है, साम्यवाद ने विषमताओं को कम कराने पर बल दिया है फिर भी विश्व में संघर्ष की भावना है, अशान्ति है; शस्त्रों की स्पर्धा एवं होड़ है, जिन्दगी में हैवानियत है। फिर यह सब क्यों ?
इसका मूल कारण है कि इन तीनों ने संघर्ष को मूल मान लिया है। मार्क्सवाद वर्गसंघर्ष पर आधारित है। विज्ञान में जगत्, मनुष्य एवं यंत्र का संघर्ष है अस्तित्ववाद व्यक्ति एवं व्यक्ति के अस्तित्व वृत्तों के मध्य संघर्ष, भय, घृणा आदि भावों की उद्भावना एवं प्रेरणा मानता है ।
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आज हमें मनुष्य को चेतना के केन्द्र में प्रतिष्ठित कर उसके पुरुषार्थ और विवेक को जागृत कर, उसके मन में सृष्टि के समस्त जीवों एवं पदार्थों के प्रति अपनत्व का भाव जगाना है; मनुष्य एवं मनुष्य के बीच आत्म-तुल्यता की ज्योति जगानी है जिससे परस्पर समझदारी, प्रेम, विश्वास पैदा हो सके। मनुष्य को मनुष्य के खतरे से बचाने के लिए हमें अधुनिक चेतना सम्पन्न व्यक्ति को आस्था एवं विश्वास का सन्देश प्रदान करना है ।
प्रश्न उठता है कि हमारे दर्शन एवं धर्म का स्वरूप क्या हो ?
हमारा दर्शन ऐसा होना चाहिये जो मानव मात्र को सन्तुष्ट कर सके, मनुष्य के विवेक एवं पुरुषार्थ को जात कर उसको शान्ति एवं सौहार्द का अमोघ मंत्र दे सकने में सक्षम हो । इसके लिये हमें मानवीय मूल्यों की स्थापना करनी होगी, सामाजिक बंधुत्व का वातावरण निर्मित करना होगा, दूसरों को समझने और पूर्वाग्रहों से रहित मनःस्थिति में अपने को समझाने के लिये तत्पर होना होगा; भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की प्रतिष्ठा करनी होगी; उन्मुक्त दृष्टि से जीवनोपयोगी दर्शन का निर्माण करना होगा । धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिये जो प्राणीमात्र को प्रभावित कर सके एवं उसे अपने ही प्रयत्नों के बल पर विकास करने का मार्ग दिखा सके। ऐसा दर्शन नहीं होना चाहिए जो आदमी, आदमी के बीच दीवारें खड़ी करके चले । धर्म और दर्शन को आधुनिक लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के आधारभूत जीवन मूल्यों स्वतंत्रता, समानता, विश्व बंधुत्व तथा आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्षों का अविरोधी होना चाहिए ।
जैन दर्शन : आत्मानुसंधान का दर्शन :
'जैन' साम्प्रदायिक दृष्टि नहीं है। यह सम्प्रदायों से अतीत होने की प्रक्रिया है। सम्प्रदाय में बंधन होता है। यह बंधनों से मुक्ति होने का मार्ग है। 'जैन' शाश्वत जीवन पद्धति तथा जड़ एवं चेतन के रहस्यों को जानकर आत्मानुसंधान की प्रक्रिया है ।
जैन दर्शन प्रत्येक प्रात्मा की स्वतंत्रता की उद् घोषणा
भगवान महावीर ने कहा- 'पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं ।'
पुरुष तू अपना मित्र स्वयम् है। जैन दर्शन में आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है- 'अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य' आत्मा ही दुःख एवं दुःख का कर्त्ता या विकर्ता है। यानी कोई बाहरी शक्ति आपको नियंत्रित, संचालित नहीं करती, प्रेरित नहीं करती । आप स्वयं ही अपने जीवन के ज्ञान से, चरित्र से उच्चतम विकास कर सकते हैं। यह एक क्रान्तिकारी विचार है । इसको यदि हम आधुनिक जीवन सन्दर्भों के अनुरूप व्याख्यायित कर सकें तो निश्चित रूप से विश्व के ऐसे समस्त प्राणी जो धर्म और दर्शन से निरन्तर दूर होते जा रहे हैं, इनसे जुड़ सकते हैं।
भगवान् महावीर का दूसरा क्रान्तिकारी एवं वैज्ञानिक विचार यह है कि मनुष्य जन्म से नहीं अपितु आचरण से महान् बनता है। इस सिद्धान्त के आधार पर उन्होंने मनुष्य समाज की समस्त दीवारों को तोड़ फेंका। आज भी मनुष्य और मनुष्य के बीच खड़ी की गयी जितने प्रकार की दीवारें हैं, उन सारी दीवारों को तोड़ देने की आवश्यकता है । यदि हम यह मान लेते हैं कि "मनुष्य जन्म से नहीं आचरण से महान् बनता है ।" तो जो जातिगत विष है, समाज की शान्ति में एक प्रकार का जो जहर घुला हुआ है, उसको हम दूर कर सकते हैं । जो पढ़ा हुआ वर्ग है उसे निश्चित रूप से इसको सैद्धान्तिक रूप से ही नहीं अपितु इसे अपने जीवन में आचरण की दृष्टि से भी उतारना चाहिये।
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा बन सकता है।
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प्रत्येक व्यक्ति साधना के आधार पर इतना विकास कर सकता है कि देवता लोग भी उसको नमस्कार करते हैं । 'देवा वित्तं नमंसन्ति जस्स धम्म समायणो ।' महावीर ने ईश्वर की परिकल्पना नहीं की; देवताओं के आगे झुकने की बात नहीं की अपितु मानवीय ६०
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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