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________________ दृष्टि को व्यापक बनाता है, मन में उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम की भावना का विकास करता है । कोई भी समाज धर्महीन होकर स्थित नहीं रह सकता। समाज की व्यवस्था, शान्ति तथा समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम एवं विश्वास का भाव जगाने के लिए धर्म का पालन आवश्यक है । धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है। धर्म का अर्थ है- 'धञ् घारणे' - धारण करना । जिन्दगी में जो हमें धारण करना चाहिए वही धर्म है। हमें जिन नैतिक मूल्यों को जिन्दगी में उतारना चाहिए वही धर्म है । संयम की लगाम आवश्यक है । 1 मन की कामनाओं को नियंत्रित किए बिना समाज रचना सम्भव नहीं है। जिन्दगी में कामनाओं के नियंत्रण की शक्ति या तो धर्म में है या शासन की कठोर व्यवस्था में धर्म का अनुशासन 'आत्मानुशासन' होता है | व्यक्ति अपने पर स्वयं नियंत्रण करता है। शासन का नियंत्रण हमारे ऊपर 'पर' का अनुशासन होता है। दूसरों के द्वारा अनुशासित होने में हम विवशता का अनुभव करते हैं, परतंत्रता का बोध करते हैं, घुटन की प्रतीति करते हैं । मार्क्स ने धर्म की अवहेलना की है। वास्तव में मार्क्स ने मध्ययुगीन धर्म के बाह्य आडम्बरों का विरोध किया है। जिस समय मार्क्स ने धर्म के बारे में चिन्तन किया उस समय उसके चारों ओर धर्म का पाखंड भरा रूप था। मार्क्स ने इसी को धर्म का पर्याय मान लिया । वास्तव में धर्म तो वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धीकरण होता है। धर्म वह तत्त्व है जिससे व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। धर्म दिखावा नहीं, प्रदर्शन नहीं, रूढ़ियां नहीं, किसी के प्रति घृणा नहीं, मनुष्य, मनुष्य के बीच भेदभाव नहीं अपितु मनुष्य में मनुष्यता के गुणों के विकास की शक्ति है; सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है। आज के विश्व के लिये किस प्रकार का धर्म एवं दर्शन सार्थक हो सकता है ? मध्य युग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं में आज के व्यक्ति की आस्था समाप्त हो चुकी है। इसके कारण हैं । मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में 'ईश्वर' प्रतिष्ठित था। हमारा सारा धर्म एवं दर्शन इसी 'ईश्वर' के चारों ओर घूमता था । सम्पूर्ण के सृष्टि के कर्त्ता, पालनकर्त्ता, संहारकर्ता के रूप में हमने परम शक्ति की कल्पना की थी। उसी शक्ति के अवतार के रूप में, या उसके पुत्र रूप में या उसके प्रतिनिधि के रूप में हमने ईश्वर, ईसा या अल्लाह को माना उन्हीं की भक्ति में अपनी मुक्ति का मंत्र मान लिया । स्वर्ग की कल्पना, देवताओं की कल्पना, वर्त्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं अपने काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा आदि बातें हमारे मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के घटक थे। वर्तमान जीवन की मुसीबतों का कारण हमने अपने विगत जीवन के कर्मों को मान लिया । वर्तमान जीवन में अपने श्रेष्ठ आचरण द्वारा अपनी मुसीबतों को कम करने की तरफ ध्यान कम रहा। ईश्वर और मनुष्य के बीच के बिचौलियों ने मनुष्य को सारी मुसीबतों, कष्टों, विपदाओं से मुक्त होकर स्वर्ग, बहिश्त में मौज की जिन्दगी बिताने की राह दिखायी और बताया कि हमारे माध्यम से अपने आराध्यों के प्रति तन, मन, धन से समर्पित हो जाओ- - पूर्ण आस्था, पूर्ण विश्वास, पूर्ण निष्ठा के साथ भक्ति करो। तर्क को साधना पथ का सबसे बड़ा शत्रु मान लिया गया । धर्म की उपर्युक्त धारणायें आज टूट चुकी हैं। विज्ञान ने हमें दुनिया को समझने और जानने का तर्कवादी रास्ता बताया है। विज्ञान ने यह स्पष्ट किया कि यह विश्व किसी की इच्छा का परिणाम नहीं है। विश्व तथा सभी पदार्थ कारण कार्य भाव से बद्ध हैं। भौतिक विज्ञान ने सिद्ध किया है कि जगत् में किसी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल रूपान्तर मात्र होता है। इस धारणा के कारण इस जगत् को पैदा करने वाली शक्ति का प्रश्न नहीं उठता। जीव को उत्पन्न करने वाली शक्ति का प्रश्न नहीं उठता। विज्ञान ने शक्ति के संरक्षण के सिद्धान्त में विश्वास जगाया। पदार्थ की अनश्वरता के सिद्धान्त की पुष्टि की। समकालीन पाश्चात्य अस्तित्ववादी दर्शन ने भी ईश्वर का निषेध किया। उसने यह माना कि मनुष्य का स्रष्टा ईश्वर नहीं है । मनुष्य वह है जो अपने आपको बनाता है । इस प्रकार जहां मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में 'ईश्वर' प्रतिष्ठित था वहां आज की चेतना के केन्द्र में 'मनुष्य' प्रतिष्ठित है । मनुष्य ही सारे मूल्यों का स्रोत है। वही सारे मूल्यों का उपादान है। आज के मनुष्य के लिए ऐसा धर्म एवं दर्शन व्याख्यायित करना होगा जो 'ईश्वरवादी' नहीं होगा, भाग्यवादी नहीं होगा उसके विधानात्मक घटक होंगे (१) मनुष्य, (२) कर्मवाद की प्रेरणा, (३) सामाजिक समता । आज के अस्तित्ववादी दर्शन में, विज्ञान के द्वारा प्रतिपादित अवधारणाओं में तथा साम्यवादी शासनव्यवस्था में कुछ विचारप्रत्यय समान हैं । (१) तीनों ईश्वरवादी नहीं हैं। ईश्वर के स्थान पर मनुष्य स्थापित है। (२) तीनों भाग्यवादी नहीं हैं। कर्मवादी तथा पुरवावादी हैं। (३) तीनों में मनुष्य की जिन्दगी को सुखी बनाने का संकल्प है। जैन तत्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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