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महिमा का जोरदार समर्थन करते हुए कहा कि जिस साधक का मन धर्म में रमण करता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं । व्यक्ति अपनी ही जीवन-साधना के द्वारा इतना उच्चस्तरीय विकास कर सकता है कि आत्मा ही परमात्मा बन सकती है।
जैन तीर्थंकरों का इतिहास एवं उनका जीवन से पृथ्वी पर उतरने का क्रम नहीं अपितु पृथ्वी से ही आकाश की ओर जाने का उपक्रम है । नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है अपितु नर का ही नारायण बनना है । वे अवतारवादी परम्परा के पोषक नहीं अपितु उतारवादी परम्परा के तीर्थंकर थे। उन्होंने अपने जीवन की साधना के द्वारा, प्रत्येक व्यक्ति को यह प्रमाण दिया; उसे यह विश्वास दिलाया कि यदि वह साधना कर सके, राग-द्वेष को छोड़ सके तो कोई ऐसा कारण नहीं है कि वह प्रगति न कर सके। जब प्रत्येक व्यक्ति प्रगति कर सकता है, अपने ज्ञान और साधना के बल पर उच्चतम विकास कर सकता है और तत्त्वतः कोई किसी की प्रगति में न तो बाधक है और न साधक तो फिर संघर्ष का प्रश्न ही कहां होता है ? इस तरह उन्होंने एक सामाजिक दर्शन दिया ।
प्रत्येक जीव में आत्म शक्ति :
सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्त्व है । इस परम्परा में मानव को मानव के रूप में देखा गया है; वर्णों, सम्प्रदायों, जाति, उपजाति, वादों का लेबिल चिपकाकर मानव-मानव को बांटने वाले दर्शन के रूप में नहीं । मानव महिमा का जितना जोरदार समर्थन जैन दर्शन में हुआ है वह अप्रतिम है । भगवान् महावीर ने आत्मा की स्वतंत्रता की प्रजातंत्रात्मक उद्घोषणा की । उन्होंने कहा कि समस्त आत्मायें स्वतंत्र हैं । विवक्षित किसी एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों का अन्य द्रव्य या उसके गुणों और पर्यायों के साथ किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है ।
इसके साथ-साथ उन्होंने यह बात कही कि स्वरूप की दृष्टि से समस्त आत्मायें समान हैं। अस्तित्व की दृष्टि से समस्त आत्मायें स्वतंत्र है; भिन्न-भिन्न हैं किन्तु स्वरूप की दृष्टि से समस्त आत्मायें समान हैं। मनुष्य मात्र में आत्म-शक्ति है । शारीरिक एवं मानसिक विषमताओं का कारण कर्मों का भेद है। जीवन अपने ही कारण से संसारी बना है और अपने ही कारण से मुक्त होगा । व्यवहार से बंध और मोक्ष के हेतु अन्य पदार्थ को जानना चाहिए किन्तु निश्चय से यह जीव स्वयं मोक्ष का हेतु है। आत्मा अपने स्वयं के उपार्जित कर्मों से बंध है | आत्मा का दुःख स्वकृत है। प्रत्येक व्यक्ति अपने ही प्रयास से उच्चतम विकास भी कर सकता है ।
जैन दर्शन में आत्मायें अनन्तानन्त हैं तथा परिणामी स्वरूप हैं किन्तु चेतना स्वरूप होने के कारण एक जीवात्मा अपने रूप में रहते हुए भी ज्ञान के अनन्त पर्यायों का ग्रहण कर सकती है।
स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्मायें समान हैं। जीव के सहज गुण अपने मूल रूप में स्थित रहते हैं । पुरुषार्थ के परिणामस्वरूप शुद्धि-अशुद्धि की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है।
आत्मतुल्यता तथा सामाजिक समता:
भगवान् ने समस्त जीवों पर मैत्रीभाव रखने एवं समस्त संसार को समभाव से देखने का निर्देश दिया । 'श्रमण' की व्याख्या उसकी सार्थकता समस्त प्राणियों के प्रति समदृष्टि रखने में बतलायी। समभाव की साधना व्यक्ति को श्रमण बनाती है ।
भगवान् ने कहा कि जाति की कोई विशेषता नहीं; जाति और कुल से त्राण नहीं होता । प्राणी मात्र आत्मतुल्य है, इस कारण प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य भाव रखो; आत्मतुल्य समझो, सबके प्रति मैत्री भाव रखो, समस्त संसार को समभाव से देखो । समभाव के महत्त्व का प्रतिपादन उन्होंने यह कहकर किया कि आर्य महापुरुषों ने इसे ही धर्म कहा है ।
आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् महावीर के उपदेश को 'सर्वोदयतीर्थ' कहा है। आत्मतुल्यता की चेतना के विकास होने तथा समभाव की आराधना से व्यक्ति सहज रूप से धार्मिक हो जाता है। अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकांतवाद जीवन के सहज आचरण की भूमिकायें हो जाती हैं।
करते
हुए
अहिंसा जीवन का विधानात्मक मूल्य एवं भाव दृष्टि
भगवान् महावीर ने अहिंसा शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग किया— मन, वचन, कर्म से किसी को पीड़ा न देना। यहां आकर अहिंसा जीवन का विधानात्मक मूल्य बन गया ।
महावीर ने अहिंसा के प्रतिपादन द्वारा व्यक्ति के सि को बहुत गहरे से प्रभावित किया। उन्होंने संसार में प्राणियों के प्रति आत्मतुल्यता-भाव की जागृति का उपदेश दिया, शत्रु एवं मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखने का शंखनाद किया ।
जब व्यक्ति सभी को समभाव से देखता है तो राग द्वेष का विनाश हो जाता है। उसका चित्त धार्मिक बनता है। रागद्वेष हीनता धार्मिक बनने की प्रथम सीढ़ी है। इस कारण उन्होंने कहा कि भव्यात्माओं को चाहिये कि वह समस्त संसार को समभाव से देखें । किसी को
जैन तत्त्व चिन्तन आधुनिक संदर्भ
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