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________________ भगवान् महावीर वनस्पतिकाय के अतिरिक्त अन्य जीवों में पोट्ट परिहार के सिद्धांत को गलत मानते थे । भगवती सूत्र के आधार पर ये बातें स्पष्ट होती हैं १. गोशालक ने अपने आपको जो गोतमपुत्र अर्जुन के जीव का गोशालक के शरीर में पोट्ट परिहार बताया था, वह असत्य था । २. गोशालक ने सभी जीवों में पोट्ट परिहार की अनिवार्यता बताई थी, वह असत्य था । ३. वनस्पतिकाय में पोट्ट परिहार की संभाव्यता को महावीर ने स्वीकार किया था । ४. अन्य जीवों में भी पोट्ट परिहार संभव हो सकता है, इसका खण्डन महावीर ने कहीं नहीं किया । उक्त तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि वनस्पतिकाय की तरह अन्य जीवयोनियों में भी पोट्ट परिहार संभव है । इस बात की पुष्टि भगवती सूत्र के एक अन्य पाठ से इस प्रकार होती है - भगवान् महावीर ने मनुष्यणी के गर्भकाल को जवन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट १२ वर्ष बताया है ।" कायभवस्थ का काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट चौबीस वर्ष बताया है। वृत्तिकार इसकी व्याख्या में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि एक जीव गर्भ में १२ वर्ष तक रहकर मृत्यु को प्राप्त होकर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो सकता है और दूसरी बार फिर १२ वर्ष और रह सकता है।' इस प्रकार मनुष्य शरीर में भी पोट्ट परिहार को स्वीकार किया गया है। सिद्धांत की दृष्टि से यदि वनस्पतिकाय में पोट्ट परिहार हो सकता है, तो मनुष्य शरीर में भी हो सकता है । अस्तु, यहां यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऐसी घटना में भी सामान्य मनोविज्ञान के सिद्धांत या अन्यान्य परिकल्पनाएं व्याख्या करने में अक्षम ही रह जाते हैं। केवल पुनर्जन्मवाद ही इसकी व्याख्या न्यूनतम स्वयं तथ्यों (Minimum assumptions) के आधार पर कर सकता है । उपसंहार : डॉ० स्टीवनसन ने अपने विशाल ग्रन्थ के उपसंहार में लिखा है "I believe, however, that the evidence favouring reincarnation as a hypothesis for the cases of this type has increased since I published my review in 1960. This increase has come from severel different kinds of observations and cases, but chiefly from the observations of the behaviour of the children climing the memories and the study of cases with specific or idiosyncratic skills and congenital birthmarks and deformities." "......In the cases of the present collection, we have evidence of the occurrence of patterns which the present personality is not known to have inherited or acquired after birth in the persent life. And in some instances these patterns match corresponding and specific features of an identified deceased personality. In such cases we have then in principle, I believe, some evidence for human survival of physical death." डॉ० स्टीवनसन के उक्त अभिमत के समर्थन में उनकी उक्त पुस्तक के भूमिका लेखक सी० जे० कास ने और भी अधिक स्पष्ट एवं तर्क संगत शब्दों में लिखा है। "If, then, one asks what would constitute genuine evidence of reincarnation, the only answer in sight seems to be same as to the question how any one of us now knows that he was living some days, months १. " मणुस्सी गभे णं भंते । मणुस्सी गन्भेत्ति कालओ केवच्चर होइ ?" "गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण बारस संवच्छराइ ।" भगवती सूत्र, २/५/८३ २. " कायभवत्थे णं भंते! कायभवत्थेत्ति कालओ केविच्चिरं होइ ?" "गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उवकोसेणं चउव्वीस संवच्छराइ ।" भगवती सूत्र (अभयदेववृत्ति सहित) २ / ५ / १०२ ३. काये -- जनन्युदर मध्य व्यवस्थितनिजदेह एव यो भवो-जन्मो स कायभवस्तत्र तिष्ठति यः स कायभवस्थः इति एतेन पर्यायेणत्यर्थः । " चउव्वीसं संवच्छराइ " ति स्त्रीका द्वादशवर्षाणि स्थित्वा पुनर्मृत्वा तस्मिनन्नेवात्मशरीरे उत्पद्यते द्वादशवर्षस्थितिकतया, इत्येवं चतुर्विंशति वर्षाणि भवन्ति । केचिदाहु- द्वादशवर्षाणि स्थित्वा पुनस्तत्रैवान्यबीजे न तच्छरीरे उत्पद्यते द्वादशवर्षस्थितिरिति भगवती सूत्र, २ / ५ / १०२ पर वृत्ति ४. Twenty Cases Suggestive of Reincarnation. ० ३५१, २५२ ५. अमेरिकन सोसायटी फॉर सायकिकल रिसर्च के प्रकाशन समिति के अध्यक्ष ६. Twenty Cases Suggestive of Reincarnation, Foreword पृ० ४ २२ Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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