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________________ जसवीर ने बताया, हालांकि विषैली मिठाई और ऋण की बात का उसके परिवार वालों को कोई पता नहीं था। डॉ० स्टीवनसन ने इस सारी घटना की बहुत ही सूक्ष्मता से जांच की है तथा सारी घटना की यथार्थता को असंदिग्ध माना है। शोभाराम और जसवीर की लगभग एक ही समय में मृत्यु होना, और शोभाराम की आत्मा के द्वारा जसवीर के मृत शरीर में पुनर्जन्म लेना तथा शोभाराम के रूप में अपने पूर्वजन्म की स्मृति को बनाए रखना--पुनर्जन्म संबंधी घटनाओं में एक विलक्षण घटना है । मृत्यु के पश्चात् नए जन्म के लिए सामान्य रूप से आत्मा स्वयं अपने नए देह का निर्माण करता है और निश्चित समय तक गर्भस्थ रहने के पश्चात् ही माता के उदर से बाहर आकर अपने नये जीवन का प्रारंभ करता है। उक्त घटना में शोभाराम द्वारा सीधे ही जसवीर के मृत शरीर में जन्म लेना--इस सामान्य क्रम से नितांत भिन्न एवं विलक्षण कम है । यद्यपि पुनर्जन्मवाद को स्वीकार करने वाले धर्म-दर्शनों में भी ऐसे क्रम के विषय में संभवतः कोई व्याख्या नहीं मिलती, फिर भी जैन आगम भगवती सूत्र में आये हुए प्रवृत्य परिहार (या पोट्ट परिहार) नामक सिद्धांत में इसकी चर्चा मिलती है। वहां आजीवक सम्प्रदाय के अधिनायक गोशालक द्वारा इसका प्रतिपादन किया गया है। गोशालक भगवान् महावीर के प्रवचनों का प्रतिवाद करता हुआ यह प्रतिपादित करता है कि वह गोशालक नहीं है, जिसने महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी, वरन् वह गोशालक के मृत शरीर में जन्म लेने वाला गौतम-पुत्र अर्जुन है । भगवान् महावीर गोशालक के इस कथन को असत्य घोषित करते हैं, यद्यपि गोशालक की अपनी बात असत्य थी, फिर भी इससे इस प्रकार की जन्म-प्रक्रिया की संभावना को सर्वथा निषिद्ध तो नहीं माना जा सकता। यह अवश्य गवेषणा का विषय है कि जैन दर्शन इस प्रकार के जन्म की व्याख्या किस प्रकार प्रस्तुत करता है। वनस्पतिकाय में पोट्ट परिहार होता है, यह सिद्धांत तो स्वयं भगवान् महावीर द्वारा माना गया है । गोशालक और तिल के पौधे की घटना के संदर्भ में स्वयं भगवान् महावीर कहते हैं- 'गोशालक! यह तिल का पौधा फलित होगा, तथा ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर इसी पौधे की एक तिलफली में सात तिल होंगे...".. वे सात तिलपुष्प के जीवन मरकर उसी पौधे की एक तिलफली में सात तिल हो गये हैं। इस प्रकार हे गोशालक ! वनस्पतिकाय के जीव 'प्रवृत्य परिहार' (पोट्ट-परिहार) का उपभोग करते हैं-मरकर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो सकते हैं। . भगवती सूत्र के उक्त प्रसंग के संदर्भ में आगे भगवान् महावीर कहते हैं --'तत्पश्चात् गोशालक ने मेरी बात पर विश्वास नहीं किया। वह तिल के पौधे के पास गया और उस फली को तोड़कर तथा हथेली पर मसलकर तिल गिनने लगा। गिनने पर तिल सात ही निकले। इससे उसके उन में विचार उत्पन्न हुआ-“यह निर्विवाद बात है कि सर्व प्राणी मरकर पुनः उसी शरीर में ही उत्पन्न होते हैं। गोशालक का यही 'प्रवृत्यपरिहारवाद' या परिवर्तनवाद है।" भगवती सूत्र में केवल यही बताया गया है कि गोशालक ने सभी जीवों में पोट्ट परिहार का सिद्धांत बना लिया था जिसके अनुसार सभी जीवों के लिए निर्वाण से पूर्व सात जन्मों में पोट्ट परिहार करना अनिवार्य माना गया। पर इससे यह अर्थ तो नहीं निकलता कि १. जेण स गोसाले मंखलिपुत्ते तब धम्मंतेवासी सेणं मुक्के सुक्काभिजाइए भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेमु देवलोएमु देवत्ताए उवयन्ने, अहणं उदाई नाम कुडियायणीए अज्जुणरस गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहाभि, विप्प हत्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, अणुप्पविसित्ता इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि। से णं अहं कासवा ! तए णं अहं आउसो कासवा ! कोमारियपम्बज्जाए कोमारएणं बंभचेरवासेणं अविद्धकण्णए चेव संखाण पडिलभामि, पडिलभित्ता इमे सत्त पउट्परिहारे परिहरामि, तं जहा--१. एणेज्जस्स २. मल्लरामस्स ३. मंडियस ४. रोहस्स ५. भारद्दाइस्स ६. अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स ७. गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स । तए पं समणे भगवं महावीरे गोसाल मंखलिपुत्तं एवं वयासी-गोसाला ! से जहानामए तेणए सिया, गामेल्लएहि परम्भमाणे परम्भमोणे कत्थ य गड्डं वा दरि वा दुग्गं वा णिण्णं वा पच्चयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं उग्णालोमेण वा समलोमेण वा कप्पासपम्हेण वा तणमुएण वा अत्ताणं आवरेत्ताणं चिठेज्जा, से ण अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मण्णइ, अप्पच्छण्णे य पच्छण्णमिति अप्पाणं मणइ, अणिलुक्के णिलुक्काभिति अप्पाणं मणइ, अपलाए पलायभिति अप्पाणं मण्णइ एवामेव तुम पि गोसाला । अणण्णेसते अण्ण भिति अप्पाणं उपलभसि तं मा एवं गोसाला ! नारिहसि गोसाला! सच्चेव ते सा छाया, नो अण्णा। -भगवती सूत्र, १५/१०१, १०२ २. गोसाला! एस णं तिलयंभए णिज्जिसइ, नी न निष्फज्जिसइ । एते य सत्ततिल पुष्पंजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता एयरस चेव तिल यंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाइस्संति ।.. ते ये सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता एयरस चेव तिलथंभगास्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया। एवं खलु गोसाला! वणरसइकाइया पउट्टपरिहारं परिहरंति । -भगवती सूत्र, १५/५८,७३ ३. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स से सत्त तिले गणमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समप्पाज्जत्था एवं खलु सब्बजीबा वि पउट्टपरिहारं परिहरंति-"एस णं गोयगा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पउट्टे, एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मम अंतियाओ आयाए अवक्कमणे पण्णते।" -भगवती सूत्र, १५/७५ जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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