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________________ है। दोनों का मार्य तो एक ही है-सत्य को पहचानना-परखना किन्तु मार्ग अलग-अलग हैं।' इस प्रकार आज लगभग सभी विचारक इससे सहमत हैं कि धर्म और विज्ञान दोनों ही जीवनोपयोगी हैं और दोनों का लक्ष्य भी सत्यानुसन्धान है। आधुनिक विचारकों ने जैन धर्म-दर्शन की अनेक मान्यताओं को वैज्ञानिकता की दृष्टि से विशेष पुष्ट किया है। विद्वानों का विचार है कि विज्ञान की प्रयोगशाला में जीन्स अध्ययन की जीव वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा टैस्ट-ट्यूब में मानव-भ्रूण निर्माण की जो संभावनाएं प्रकाश में आई हैं जैन धर्म दर्शन की जीव विषयक धारणा उनसे काफी मिलती है। प्रस्तुत खंड में स्वामी वाहिद काज़मी ने यह प्रतिपादित करने की चेष्टा की है कि आधुनिक भौतिक विज्ञान ने परमाणु के स्वरूप को बिन्दुगत तथा तरंगगत रूप से जो सिद्ध किया है वह भगवान महावीर की सापेक्ष-दृष्टि से सत्य सिद्ध हो रहा है । इसी सन्दर्भ में मुनि महेन्द्रकुमार जी का पुनर्जन्म सम्बन्धी लेख विशेष रूप से उल्लेखनीय कहा जा सकता है जिसमें जैन दर्शन की मान्यताओं के सन्दर्भ में पुनर्जन्म से सम्बद्ध आधुनिक वैज्ञानिक अध्ययन की समीक्षा की गई है। डॉ० दुलीचन्द्र जैन की मान्यता के अनुसार यद्यपि आधुनिक विज्ञान जगत् में ऐसा कोई भी प्रयोग नहीं हुआ है जिससे कर्म सिद्धान्त की पूर्णतः वैज्ञानिक पुष्टि हो सके क्योंकि अभी तक विज्ञान आत्मा पर प्रयोग नहीं कर सका है । परन्तु विद्वान् लेखक ने आधुनिक विज्ञान की अनेक मान्यताओं तथा जैन कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी मान्यताओं की पारस्परिक अनुकूलता का विशेष रूप से प्रतिपादन किया है। उपर्युक्त सभी तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि धर्म और दर्शन के सिद्धान्तों को आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में युक्तिसंगत ठहराया जा सकता है परन्तु इस सम्बन्ध में यह भी विशेष रूप से विचारणीय है कि क्या धर्म और विज्ञान के सत्यानुसन्धान की प्रक्रिया एक है ? "जो निरीक्षण और प्रयोग के दायरे में न आता हो और विवेक-सम्मत न हो उसे विज्ञान मानने को राजी नहीं है। आधुनिक युग में विश्वास और आप्तोपदेश का कोई स्थान और महत्त्व नहीं है । विज्ञान ने मनुष्यों को इनके विरुद्ध विद्रोह करना सिखाया है। वस्तुतः विज्ञान और धर्म की प्रतिकुलता का प्रश्न यहीं से उठता है। विज्ञान जिन धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं का विरोधी है अनेक धर्म संस्थाएं यह कदापि स्वीकार नहीं करेंगी कि विज्ञान उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करे। इसी प्रकार धर्म संस्था में 'आप्त' मानने का आग्रह इतना प्रबल रहता है कि विज्ञान द्वारा प्रकटित सत्य यदि 'आप्त' के विरुद्ध जाए तो भी धार्मिक जगत् में विज्ञान के हस्तक्षेप को सहन नहीं किया जाएगा। इन परिस्थितियों में विद्वानों के लिए यह सिद्ध करना विशेष महत्त्व नहीं रखता कि अमुक धर्म और दर्शन के अमुक सिद्धान्त विज्ञानसम्मत हैं जब तक इस सम्भावना की पूरी छान-बीन नहीं कर ली जाती है कि धर्म संस्था में विज्ञानसम्मत प्रगतिशील मूल्यों के जुड़ने का अवकाश भी है या नहीं ? हमें इस वस्तुस्थिति की भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि आधुनिक विज्ञान ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त, बन्ध, मोक्ष, आदि धर्म-दर्शन के कूटस्थ मूल्यों को संदिग्ध दृष्टि से देखता है तथा भौतिक जगत् तक ही अपने सत्यानुसन्धान-क्षेत्र को सीमित किए हुए है। धर्म और दर्शन ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त के मूलाधारों पर ही अवलम्बित है तथा भौतिक जगत् के तत्त्वों का वह उदासीन दृष्टि से विश्लेषण करता आया है। इस प्रकार धर्म और दर्शन जिन आध्यात्मिक मूल्यों को सत्य मानते हुए भौतिक जगत् के प्रति उदासीन है विज्ञान ठीक इसके विपरीत दिशा की ओर चलते हुए भौतिक तत्त्वों के प्रति आस्थावान् है और आध्यात्मिकता का विरोधी है । धर्म और विज्ञान का समन्वय करने में सबसे बड़ी बाधा तब उपस्थित होती है जब ज्ञान की प्रामाणिकता के प्रश्न पर दोनों एक दूसरे से पृथक हो जाते हैं। विज्ञान जिसे 'प्रामाणिक' मानता है धर्म और दर्शन उसकी प्रामाणिकता को संदिग्ध दृष्टि से देखता है। डॉ० भार्गव ने इसी समस्या का विश्लेषण करते हुए कहा है कि "वैज्ञानिक की पद्धति ऐसी है कि उसमें नवीन उद्भावना के द्वार सदा खुले हैं । धर्म-दर्शन की पद्धति ऐसी है कि नवीन उद्भावना को भी किसी पुराने व्यक्ति या ग्रन्थ के नाम पर ही चलाया जा सकता है। नवीन उद्भावना की भी धर्म और दर्शन में नवीनता स्वीकार नहीं की जा सकती। नवीनता का धर्म दर्शन के क्षेत्र में अर्थ है 'अप्रामाणिकता' किन्तु विज्ञान के क्षेत्र में 'नवीनता' का अर्थ है 'मौलिकता'।"४ ऐतिहासिकता की दृष्टि से भारतीय-धर्म-दर्शन में 'नवीनता' अथवा 'मौलिकता' को हतोत्साहित करने की प्रवृत्ति का औचित्य पिछली नौ-दस शताब्दियों के दार्शनिक एवं धार्मिक विचारकों तक ही सीमित है समग्र धर्म-दर्शन के इतिहास की दृष्टि से नहीं। सभी भारतीय धर्मों एवं दर्शनों के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि 'आप्तत्व' की समस्या ने भारतीय धर्म-दर्शन के मौलिक एवं मुक्त चिन्तन को हतोत्साहित किया है। चाहे वे आस्तिक दर्शन हों या नास्तिक 'आप्तत्व' के आग्रह से मुक्त नहीं हैं। वस्तुत: वेदापौरुषेयत्व का जैन धर्म-दर्शन द्वारा खण्डन करने का कोई औचित्य सिद्ध नहीं होता यदि वह भी 'सर्वज्ञता' के आग्रह से जुड़ा हुआ रहता है। आस्तिक धर्मावलम्बियों के लिए ईश्वर के वचन जैसे अनिवार्यतः अनुकरणीय हैं 'सर्वज्ञता' की अवधारणा में भी वैसा ही आग्रह विद्यमान है । पं० दलसुख मालवणिया १. राजीव प्रचंडिया, वैज्ञानिक आईने में जैन धर्म, प्रस्तुत खण्ड २. प्रद्य म्न कमार जैन, तीर्थकर जीवन दर्शन, लखनऊ, १६७५, १० १०७ ३. हरेन्द्र प्रसाद वर्मा, जैन दर्शन और आधुनिक सन्दर्भ, प्रस्तुत खण्ड ४. दयानन्द भार्गव, आधुनिक सन्दर्भ में जैन दर्शन के पुनर्मूल्यांकन की दिशाएं, प्रस्तुत खण्ड आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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