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________________ श्रेष्ठता के विषय में आचार्य श्री ने कहा है, "जैन धर्म सम्पूर्ण प्राणीमात्र का धर्म है। किसीका व्यक्तिगत धर्म नहीं है। परन्तु आचार्य श्री ने अनेक बार चिन्ता व्यक्त की है कि आज जैन धर्म का व्यापक प्रचार नहीं हो रहा है क्योंकि "भारतीय जैनेतर विद्वानों में से अधिकांश जैन धर्म से अनभिज्ञ हैं । जैन सिद्धान्तों का साधारण परिज्ञान भी बिरलों को होगा। तब विदेशों में तो जैन धर्म को कौन कितना समझता होगा। संसार के सबसे प्राचीन, सबसे प्रमुख, सिद्धान्त और आचार की दृष्टि से सबसे अग्रेसर धर्म प्रसिद्धि में इतना पीछे ! यह सब प्रचार की कमी का परिणाम है।" श्री देशभूषण महाराज ने महावीर युगीन जैन धर्म के प्रचार की प्रशंसा की है तथा आज दिनों-दिन घटती हुई साधक परम्परा का भी एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण किया है- “जैन धर्म का प्रचार भगवान् महावीर ने अपने समय में इतना किया कि उनके नाम पर वर्द्धमान, वीर भूम, सिद्ध भूम, मान भूम आदि अनेक नगरों का नाम करण हुआ। भारत में जैन धर्म राजधर्म के रूप में बन गया। अहिंसा धर्म की ध्वजा समस्त भारत में फहराने लगी। भगवान् महावीर के निर्वाण हो जाने पर उनकी शिष्य परम्परा ने भी जैन धर्म का बहुत भारी प्रचार किया। सम्राट चन्द्रगुप्त के शासन काल में ४२ हजार जैन साधुओं का विशाल संघ तो केवल मालवा में था। द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष आने से पहले श्री भद्रबाहु आचार्य की प्रमुखता में हजारों जैन साधुओं का संघ दक्षिणभारत की ओर विहार कर गया। सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी जैन साधु की दीक्षा लेकर उन्हीं साधुओं के साथ दक्षिण की ओर विहार किया। हजारों साधुओं का मालवा में रहना और हजारों साधुओं का संघ उत्तर भारत से विहार करता हुआ दक्षिण भारत को जाना इस बात का साक्षी है कि उस समय उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत में जैन धर्म का बहुत भारी प्रचार था, बहुत बड़ी संख्या में जैन धर्मानुयायी भारत में उस समय थे तभी हजारों साधुओं के शुद्ध खान-पान, विहार, ठहरने आदि की सुव्यवस्था उस जमाने में अनायास हो जाती थी। किन्तु आज जब हम इस ओर दृष्टिपात करते हैं तब बहुत निराशा होती है । इस समय दिगम्बर साधु लगभग एक सौ हैं, उनमें भी क्षति होती जा रही है । शारीरिक, कालिक एवं क्षेत्र सम्बन्धी कठिन परिस्थितियों के कारण नवीन साधुओं का होना दुर्लभ नजर आता है। अतः जैन धर्म का प्रचार बहुत कम हो गया है। इस प्रचार की कमी का कारण बताते हुए आचार्य श्री कहते हैं कि "जैन धर्म के महान् प्रचार को सम्पन्न करने के लिए सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में से आठवां अंग 'प्रभावना' बतलाया गया है 'प्रभावना' अंग का मूल उद्देश्य जैन धर्म को व्यापक बनाना था। किन्तु जैन समाज ने इस ओर इतनी उपेक्षा की है कि हमारी पड़ोसी जनता भी अनभिज्ञ है कि जैन धर्म क्या वस्तु है ? करोड़ों भारतीय स्त्री-पुरुष भी जैन धर्म से अपरिचित हैं।" ३. धर्म और विज्ञान : __ धर्म-दर्शन की विज्ञानुसारी व्याख्या करने की ओर आधुनिक विचारक विशेष रुचि ले रहे हैं । ऐसी मान्यता सुदृढ़ होती जा रही है कि आधुनिक युग में वही दर्शन और धर्म उपयोगी हो सकता है जो विज्ञान की मान्यताओं के अनुकूल हो। इस सम्बन्ध में डा० महावीर सरन जैन का मन्तव्य है कि “आज विज्ञान ने हमें गति दी है, शक्ति दी है। लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं। वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण जिस शक्ति का हमने संग्रह किया है उसका उपयोग किस प्रकार हो, गति का नियोजन किस प्रकार हो-आज के युग की जटिल समस्या है। इसके समाधान के लिए हमें धर्म एवं दर्शन की ओर देखना होगा।"५ परन्तु डॉ. महावीर यह मानते हैं कि मानव कल्याण के लिए विज्ञान एवं धर्म-दर्शन के जिस पूरक सहयोग एवं समन्वय की आवश्यकता है उसके लिए जरूरी है परम्परागत अन्धविश्वासों और विकृतियों पर आधारित मूल्यों का निराकरण कर दिया जाए-"भौतिक विज्ञानों के चमत्कारों से भयाकुल चेतना को हमें आस्था प्रदान करनी है। निराश एवं संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं विश्वास की मशाल थमानी है जिन परम्परागत मूल्यों को तोड़ दिया गया है उन पर दुबारा विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि वे अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक हो गए हैं। परम्परागत मूल्यों की विकृतियों को नष्ट कर देना ही अच्छा है। हमें नये युग को नए जीवन मूल्य प्रदान करने हैं। इस युग में जो बौद्धिक संकट एवं उलझनें पैदा हुई हैं। हमें समाधान का रास्ता ढूंढना है।" सिद्धान्तत: धर्म और विज्ञान का स्वतन्त्र महत्त्व है। दोनों ही सत्य तक पहुंचने के माध्यम हैं। विज्ञान भौतिक प्रयोगशाला में किसी वस्तु की सर्वभौमिक सत्यता को उद्घाटित करता है तो धर्म जिज्ञासा-अनुभव के आधार पर आत्म प्रयोगशाला में सत्य को खोजता १. आचार्य श्री देशभूषण, उपदेशसारसंग्रह, (जयपुर), १९८२, प्रथम भाग, पृ०३ २. वही, पृ० ८७ ३. वही, पृ० ८७ ४. वही, पृ०८७ ५. महावीर सरन जैन, विश्व धर्म के रूप में जैन धर्म-दर्शन की प्रासंगिकता, प्रस्तुत खण्ड ६. वही जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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