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जी का विचार है कि सर्वज्ञता की अवधारणा भगवान् महावीर की देन नहीं अपितु परवर्ती दार्शनिकों की मान्यता है । सम्भवतः मीमांसकों के आक्षेपों का उत्तर देने के लिए जैन दर्शन में सर्वज्ञता की अवधारणा उत्पन्न हुई होगी। जहां तक भगवान् महावीर के धर्मोपदेशों का सम्बन्ध है उनमें ईश्वर के वचनों के समान अनुकरणीयता का आग्रह देखने में नहीं आता। जैन दर्शन विश्वास और अविश्वास सभी एकान्तिक दृष्टियों का विरोध करता है और साथ ही यह मानता है कि सत्य चाहे किसी स्रोत से आए हमें उसे ग्रहण करना चाहिए। इसमें आप्तोपदेश को आंख मूंदकर मानने पर बल नहीं दिया जाता।"" जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है भगवान् महावीर सत्य को अनुकरण के आधार पर स्वीकार करने के विरोधी हैं और अनुभव एवं परीक्षण के द्वारा ग्रहणाग्रहण के विवेक को ही महत्त्व देते हैं। स्वयं भगवान् महावीर ने अपने से पहले तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ के तत्त्वदर्शन को आत्म परीक्षण के द्वारा स्वीकार किया। यदि वे सर्वज्ञता की धारणा का समर्थन करते होते तो पार्श्वनाथ के धार्मिक सिद्धान्तों से उनका किंचित् मात्र भी मतभेद नहीं रहता । परन्तु प्राचीन आगम ग्रन्थों के प्रमाण यह बताते हैं कि पार्श्वनाथ के शिष्यों में एवं महावीर के शिष्यों में तात्त्विक मतभेद विद्यमान रहा था। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि 'कूटस्थता के प्रति एकान्तिक आग्रहों को लेकर चलने वाले धर्मों और दर्शनों में जैन धर्म-दर्शन सम्मिलित नहीं है। अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रभाव से उसमें जो कुछ विकृतियां आईं हैं उनकी सत्यता का पुनर्मूल्यांकन किया जाना अभी शेष है। जैन धर्म-दर्शन के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को कोई रोक नहीं सकता परन्तु इस प्रक्रिया को अपनाते हुए स्वीकार करना चाहिए कि अमुक प्राचीन सिद्धान्त का अतिक्रमण किया जा रहा है क्योंकि आधुनिक परिस्थितियों में उसकी सार्थकता लुप्त हो चुकी है। नवीन तथ्य को नवीन कहना आधुनिक दृष्टि होगी। "हमें चाहिए कि प्राचीन सिद्धान्त के मूलरूप को ईमानदारी से वैसा ही रहने दें जैसा वह है । तथा उस प्राचीन सिद्धान्त की द्रविड प्राणायाम द्वारा नवीन व्याख्या न करके नवीन सिद्धान्त का स्वतन्त्र ही प्रतिपादन करें। फिर भी प्राचीन की समयानुसार नवीन व्याख्या करने का अधिकार वहां तक है जहां तक वह नवीन व्याख्या सहज तथा स्वाभाविक हो ।” सम्भवतः आधुनिक सन्दर्भ में धर्म और दर्शन की विज्ञान परक सार्थकता तभी मानी जाएगी जब हम विज्ञान सम्मत सत्यानुसन्धान की प्रक्रिया को भी स्वीकार कर लेंगे धर्म और विज्ञान का समन्वय करने वाले विचारकों को इस समस्या की सम्भावनाओं और असम्भावनाओं पर भी विचार करना चाहिए ।
४. धर्म-दर्शन में मौलिकता की समस्या :
आधुनिक सन्दर्भ में भारतीय धर्म-दर्शन के क्षेत्र में नवीनता एवं मौलिकता की समस्या पर विश्व चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाना अपेक्षित हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि पिछली आठ-नौ शताब्दियों की कालावधि मौलिक चिन्तन एवं नवीन सिद्धान्तों से वंचित रही है तथा इन शताब्दियों में प्रथम श्रेणी के दार्शनिकों का भी अभाव रहा है। इन विगत शताब्दियों में दार्शनिक योगदान के नाम परशुष्कतावाद को प्रोत्साहन मिला है या फिर प्राचीन मान्यताओं का पिष्टपेषण हुआ है। अक्षपाद, कपिल, कणाद, नागार्जुन, दिनाग, धर्मकीर्ति, कुन्दकुन्द अकलंक, सिद्धसेन समन्तभद्र, कुमारिस, शंकर, वाचस्पति जैसी प्रतिभाएं उत्तरोत्तर के काल में विरल होती गई हैं। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान डॉ० देवराज का कथन है कि योरोप की पुनर्जागृति (रिनेशां) के बाद की सांस्कृतिक लब्धियों पर दृष्टिपात करें तो आखें बधियाये बिना नहीं रह सकती। डेकार्ट, स्पिनोजा और लाइनिज लॉक बार्कले, और ह्यूम काण्ट, हेगेल और कार्ल मार्क्स गेलियो, न्यूटन और डार्विन इन तेजस्वी मनीषियों की तुलना में बारहवीं से उन्नीसवीं सदी तक के भारतीय लेखक-विचारक टिमटिमाते दीपकों से मालूम होते हैं।"" डॉ० देवराज की धारणानुसार आधुनिक भारतीय विचारक महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, अरविन्द, राधाकृष्णन् आदि सब भारतीय संस्कृति के व्याख्याता हैं । इनमें से गांधी जी ने यद्यपि नैतिक और राजनैतिक क्षेत्रों में वस्तुत: मौलिक विचारणाएं दीं किन्तु पारिभाषिक अर्थ में गांधी जी एक दार्शनिक विचारक नहीं है। ऐसा ही रवीन्द्र, अरविन्द, आदि के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है।
किसी भी देश का साहित्यिक सृजन व दार्शनिक चिन्तन शून्य में घटित नहीं होता अपितु कवि और दार्शनिक दोनों अपने देश और जाति के लिए लिखते सोचते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो महात्मा गांधी की आधुनिक चिन्तन पद्धति विद्रोह मूलक संघर्ष का आह्वान करती हुई जहां एक और देश को स्वाधीनता दिलाने में फलीभूत हुई है वहां दूसरी ओर उनके चिन्तन में स्वदेशी धर्म-दर्शन के प्रति महान
१. उज्जैन की अखिल भारतीय प्राच्यविद्यापरिषद् में दिया गया वक्तव्य
२. हरेन्द्र प्रसाद वर्मा, जैन दर्शन और आधुनिक सन्दर्भ, प्रस्तुत खण्ड
३. Sacred Books of the East, Vol. XLV, पृ० ११६; Bool Chand, Jainism in Indian History, J. C. R.S., Banares 1951, पृ० ३
४. देवराज, पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, लखनऊ, १९५१, पृ०२८७
५. वही, पृ० २५६
जैन तत्त्व चिन्तन आधुनिक संदर्भ
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