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________________ आदिपुराण में जैन दर्शन के तत्त्व पुराण का भारतीय संस्कृति में स्थान- प्राचीन भारतीय साहित्य में पुराणों का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। ये हमारी संस्कृति एवं धर्म के संरक्षक और सर्वसाधारण जनों को नीति, चरित्र, योग, सदाचार आदि की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ हैं । इनका एकमात्र उद्देश्य धार्मिक संस्कारों को दृढ़ करना तथा सरल, सुबोध भाषा में अध्यात्म के गूढ़ तत्वों को समझाना रहा है, इसलिए ये ज्ञान-विज्ञान के कोश कहे जाते हैं। इनमें सभी वेद और उपनिषदों के ज्ञान को विभिन्न कथानकों के माध्यमों से समझाने का प्रयास किया गया है। पुराण-साहित्य का विकास आज से नहीं, अपितु प्राचीन काल से ही होता आया है। इनकी कथा कहानी एवं दृष्टांत प्राचीन ही हैं। ये सर्वसाधारण के उपकार की दृष्टि से ही लिखे गये हैं। इनमें तत्त्वों का विवेचन लोकोपकारी कथानकों तथा प्रभावशाली दृष्टान्तों द्वारा किया गया है। इसलिए इनका प्रभाव आज भी स्पष्ट है। यदि हम इनके विशिष्ट पहलुओं पर विचार करके देखें, तो इनकी शिक्षा को कभी भी किसी भी युग में अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। आज जो कुछ भी धार्मिकता हम देख रहे हैं, वह सब पुराण-साहित्य का ही योगदान कहा जा सकता है । अतः यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि पुराण भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के लोकप्रिय और अनुपम रत्न हैं । जैन दर्शन का भारतीय दर्शन में स्थान- भारतीय संस्कृति की परम्परा अतिप्राचीन मानी जाती है। मनुष्य ने अपने जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए किसी न किसी दृष्टिकोण का सहारा अवश्य लिया होगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृति की प्राचीनता के साथ दार्शनिक प्राचीनता अवश्य दिखलाई देती है । परन्तु इसका प्रारम्भ कब हुआ, इसका निर्णय करना अत्यन्त कठिन है । भारतीय दार्शनिक विचारधारा के आदि स्रोत वेद और उपनिषद् माने गये हैं । उत्तरवर्ती काल में इसमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा दर्शन के साथ जैन-बौद्ध दर्शन के सिद्धान्तों का भी समावेश हो गया। ये सभी दर्शन तथा जैन दर्शन स्वतन्त्र रूप से विकसित हुए हैं। इनमें से जैन दर्शन एक बहुतत्ववादी दर्शन है, जिसने वस्तु को अनन्तधर्मात्मक बतलाकर स्याद्वाद की निर्दोष शैली को प्रतिपादित किया । अहिंसा की विचारधारा को जनसाधारण के जीवन के विकास के लिए उपयोगी कहा और कर्म के सिद्धान्त द्वारा व्यक्ति को महान् बतलाया । जैन दर्शन के क्षेत्र में आदिपुराण का महत्व - आदिपुराण का नाम लेते ही सिद्ध हो जाता है कि यह जैन दर्शन का अनुपम रत्न है । साहित्याचार्य ने इसे जैनागम के प्रथमानुयोग ग्रन्थों में सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ कहा है तथा इसे समुद्र के समान गम्भीर बतलाया हैं ।" जैन साहित्य का विकासक्रम तत्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वामी से माना जाता है। इन्होंने विक्रम की प्रथम शती में नवीन शैली से दार्शनिक दृष्टि को सामने रखकर तत्वनिरूपण किया था। उसी के आधार पर पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्द आदि महान् आचार्यों ने सर्वार्थसिद्धि तत्वार्थरलोकवातिक, सत्यार्थराजवार्तिक आदि महाभाष्य लिखे। जैसे-जैसे विकास होता गया, वैसे-वैसे ही दार्शनिकों ने जैन दार्शनिकता का अपनी-अपनी शैली में प्रतिपादन किया। डॉ० उदयचन्द जैन आठवीं शती तक जैन दर्शन का परिष्कृत रूप सामने आ गया था। नवमी शती में जिनसेन ने भी पूर्वाचार्यों द्वारा जिन कथानकों, तत्वों का (जिस रूप में) वर्णन किया उसी का आधार लेकर काल-वर्णन, कुलकरों की उत्पत्ति वंशावली, साम्राज्य, अरहंत अवस्था, निर्वाण और युग-विच्छेद का वर्णन किया है। आदिपुराण के विषय में जिनसेन के शिष्य गुणभद्राचार्य ने पुराण तथा अपने गुरु की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि आगम रूपी समुद्र १. आदिपुराण की प्रस्तावना, पृ० ५० २. आदिपुराण, २ / १५८-१६२ १३२ Jain Education International 2 For Private & Personal Use Only आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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