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________________ होना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्न, पाषाण आदि शब्द सुनते ही कान में दाह, अभिघात आदि होना चाहिए।' अभयदेव सूरि और भद्रबाहु स्वामी ने भी यही कहा है।' लेकिन ऐसा नहीं होता । सिद्ध है कि शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है। एक प्रश्न के उत्तर में प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध के अभाव में भी अर्थ की प्रतीति शब्दों में रहने वाली संकेत और स्वाभाविक शक्ति में उसी प्रकार होती है, जैसे काष्ठादि में भोजन पकाने की शक्ति होती है।' श्री वादिदेव सूरि ने भी कहा है “स्वाभाविक शक्ति तथा संकेत से अर्थ के ज्ञान करने को शब्द कहते हैं।"" इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध है कि शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध भी नहीं है । शब्द अर्थ में विशेषणीभाव सम्बन्ध भी नहीं है - शब्द और अर्थ में विशेषणी भाव भी सिद्ध नहीं होता, क्योंकि विशेषणविशेष्यभाव दो सम्बद्ध पदार्थों में ही होता है, जैसे- भूतल में घटाभाव । सम्बन्धरहित दो पदार्थों में विशेषणीभाव उसी प्रकार नहीं होता, जैसे सा और विन्ध्याचल में नहीं है। इसी प्रकार शब्द और अर्थ के असम्बद्ध होने से उनमें विशेषणीभाव सम्बन्ध भी नहीं हैं। " वाच्य वाचक सम्बन्ध मानने पर द्वैत की सिद्धि – शब्द और अर्थ में वाच्य वाचक भाव मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से वाच्य पदार्थ और वाचक शब्द इन दोनों में भेद मानना होगा और ऐसा मानने पर अद्वीत का अभाव और द्वंौत की सिद्धि होती है । इस प्रकार विचार करने पर शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध ही सिद्ध नहीं होता । अतः शब्दाद्व तवादियों का यह सिद्धान्त ठीक नहीं है कि अर्थ शब्द से अन्वित है। शब्दाद्वैतवादी का यह कथन भी ठीक नहीं है कि "प्रतीति से ज्ञान में शब्दान्वितत्व की कल्पना की जाती है और ज्ञान के शब्दान्वित सिद्ध होने पर अन्यत्र भी कल्पना कर ली जाती है कि संसार के सभी पदार्थ शब्दान्वित हैं ।" शब्दाद्वैतवादी का यह कथन ठीक न होने का कारण यह है कि कल्पना के आधार पर किसी बात की सिद्धि नहीं हो सकती। दूसरी बात यह है कि ज्ञान और शब्द का द्वैत मानना पड़ेगा । इसलिए सोऽस्ति प्रत्ययलो' इत्यादि कथन ठीक नहीं है। एक बात यह भी है कि चाय प्रत्यक्ष में शब्द-संस्पर्श के अभाव में भी अपने अर्थ का प्रकाशक होने से ज्ञान सविकल्प सिद्ध होता है । शब्द से भिन्न पदार्थ नहीं - ऐसा कहना भी असंगत एवं दोपयुक्त है शब्द से भिन्न (व्यतिरिच्य ) पदार्थ नहीं है - शब्दाद्वैतवादी का यह कथन भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा कहना प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध है । हम प्रत्यक्ष से अनुभव करते हैं कि शब्द के देश से भिन्न स्थान में अर्थ रहता है। लोचनादिज्ञान के द्वारा शब्द का ज्ञान होने पर भी अर्थ की प्रतीति होती है।" इस प्रकार 'तत्प्रतीतावेव प्रतीयमानत्वात्' इस अनुमान में प्रतीयमानता हेतु असिद्ध है। यदि शब्द के प्रतीत होने पर ही अर्थ की प्रतीति होती हो, तो बधिर को वक्षु आदि प्रत्यक्ष के द्वारा रूप आदि की प्रतीति नहीं होनी चाहिए यह पहले ही कहा जा चुका है। अतः शब्द से पदार्थ भिन्न है – यह सिद्ध है । - इस प्रकार दात का परिशीलन करने से सिद्ध होता है कि इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिए शब्दाईतवादियों ने जो तर्क दिये हैं वे परीक्षा की कसौटी पर सही सिद्ध नहीं होते। अतः शब्दाद्वैतवादियों का मत युक्तियुक्त नहीं है । स्याद्वाद मत में शब्द के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की सत्ता सिद्ध की गई है। जैन दर्शन में द्रव्यवाक् और भाववाक् के भेद से वचन दो प्रकार के हैं। द्रव्यवाक् दो प्रकार की होती हैद्रव्य और पर्याय धोत्रेन्द्रिय से जो वामी ग्रहण की जाती है, वह पर्यावरूपवान् है उसी को शब्दाद्वैतवादियों ने वैखरी और मध्यमा कहा है। इस प्रकार सिद्ध है कि वैखरी और मध्यमा रूप शब्द पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं। द्रव्यस्वरूप वाणी पुद्गल द्रव्य है, जिसका किसी ज्ञान में अनुगम होने वाला है। भाववाक् जैन दर्शन में विकल्पज्ञान और द्रव्यवाक् का कारण है। यह भाववाक् ही शब्दाद्वैतवाद में पश्यन्ती कही गई है । इस भाव-वाणी के बिना जीव बोल नहीं सकते । 1 १. वादिदेव : स्था० २०, १ / ७, पृ० ६४; और भी देखें: प्र० क० मा० १३, पृ० ४६ २. (क) 'शब्दार्थयोश्च तादात्म्ये क्षुराग्निमोदकादिशब्दोच्चारणे आस्यपाटनदहनपूरणादि प्रसक्तिः, अभयदेव सूरि : सं० त० प्र० टीका, पृ० ३८६ (ख) 'अभिहाण अभियाउ होइ भिष्णं अभिण्णं च । सुरअणि मोयणुष्मारणम्म जम्हा वयणसवणाणं ।' स्या० मं० पृ० ११८ 1 ३. 'ननु तदभावेऽप्यस्याः संकेत सामार्थ्यादुपपद्यमानत्वात । शब्दानां सहजयोग्यतायुक्तानामर्थप्रतीति प्रसाधकत्वम् काष्ठादीनां पाकप्रसाधकत्ववत ।', प्रभाचन्द्र न्या० कु० चं०, पृ० १४४ ४. प्रमाणनयतत्वालोकालंकार ५. 'नाऽपि विशेषणीभावः, सम्बन्धान्तरेण । सह्यविन्ध्यादिवत् तद्भावस्यानुपपत्तेः ।', न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४४ ६. 'तदेवं शब्दार्थयोः अद्वैताविरोधिनः सम्बन्धस्य कस्यचिदपि विचार्यमाणस्यान पपत्तेः न शब्देनान्वितत्वमर्थस्य घटते ।', प्रभाचन्द्र न्या० कु०च०, १/५, पृ० १४५ ७. वही ८. 'शब्दाद्वैतवादी हि भवान् न च तत्र शब्दों बोधश्चेति द्वयमस्ति ।', वादिदेव सूरि : स्या० २० पृ० ९२ ६. तत्र पक्षस्य प्रत्यक्ष बाधा' न्या० कु० च०, १/५, १० १४५ १०. .... इति हेतुश्चासिद्धः, लोचनादिज्ञानेन शब्दाऽप्रतीतावपि अर्थस्य प्रतीयमानत्वात ।', वही जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only १३१ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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