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का लक्षण ठीक नहीं है।
शब्दब्रह्म में वैखरी आदि अवस्थायें विरुद्ध हैं-आचार्य विद्यानन्द कहते हैं कि नित्य, निरंश और अखण्ड शब्दब्रह्म में वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा ये चार भेद नहीं हो सकते। किसी सांश पदार्थ में ही भेद हो सकता है। वे शब्दाद्वैतवादी से एक प्रश्न यह भी करते हैं कि क्या वैखरी आदि चार अवस्थायें सत्य हैं ? सत्य मानने पर उनके सिद्धान्त विरोधी सिद्ध होते हैं, क्योंकि शब्दब्रह्म की तरह वैखरी आदि को सत्य मान लिया गया है, जिससे द्वत की सिद्धि होती है।
वैखरी आदि अविद्यास्वरूप नहीं हैं --शब्दाद्वैतवादी का यह कथन भी सत्य नहीं है कि एकमात्र शब्दब्रह्म सत्य है और वैखरी आदि चार अवस्थायें अविद्यास्वरूप होने से असत्य हैं । इस कथन के ठीक न होने का कारण यह है कि निरंश शब्दब्रह्म विद्यास्वरूप सिद्ध है। इसलिए उसकी अवस्थायें भी अविद्यास्वरूप न होकर विद्यास्वरूप ही होंगी। इस प्रकार वैखरी आदि को अविद्यास्वरूप मानना तर्कसंगत नहीं है।'
अर्थ शब्द से अन्वित है--यह कैसे जाना जाता है ? --प्रभाचन्द्राचार्य न्यायकुमुदचन्द्र में शब्दाद्वैतवादी से कहते हैं कि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध होने पर अर्थ शब्द से अन्वित है-यह किसी प्रमाण से जाना जाता है या नहीं ? ४ यह तो माना नहीं जा सकता है कि किसी प्रमाण से नहीं जाना जाता है, अन्यथा अतिप्रसंग नामक दोष आयेगा अर्थात् सबके कथन की पुष्टि बिना प्रमाण के होने लगेगी। दूसरी बात यह है कि “जो जिससे असम्बद्ध होता है, वह उससे वास्तव में अन्वित नहीं होता, जैसे---हिमालय और विन्ध्याचल पर्वत असम्बद्ध हैं, इसलिए हिमालय से विन्ध्याचल अन्वित नहीं है। इसी प्रकार अर्थ से शब्द भी असम्बद्ध है अर्थात् अर्थ शब्द से अन्वित नहीं है।"५ इस अनुमान से विरोध आता है।
शब्द और अर्थ में कौन-सा सम्बन्ध है ?--अब यदि यह मान लिया जाय कि शब्द और अर्थ में परस्पर सम्बन्ध है, तो शब्दावतवादियों को यह भी बतलाना चाहिए कि उनमें कौन-सा सम्बन्ध है ? उनमें निम्नांकित सम्बन्ध ही हो सकते हैं :
(क) क्या शब्द और अर्थ में संयोग सम्बन्ध है ? (ख) क्या उनमें तादात्म्य सम्बन्ध है? (ग) क्या विशेषणीभाव सम्बन्ध है?
(घ) क्या वाच्य-वाचक भाव सम्बन्ध है ? शब्द-अर्थ में संयोग सम्बन्ध नहीं है-शब्द और अर्थ दोनों मलय पर्वत और हिमाचल की तरह विभिन्न देश में रहते हैं अर्थात शब्द श्रोत्र-प्रदेश में और अर्थ सामने अपने देश में रहता है, इसलिए उनमें उसी प्रकार से संयोग सम्बन्ध नहीं हो सकता, जैसे-मलय
और हिमाचल में संयोग सम्बन्ध नहीं है। भिन्न देश में रहने पर भी यदि शब्द और अर्थ में संयोग सम्बन्ध माना जाय, तो अद्वैत सिद्ध नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि शब्द और अर्थ दोनों विभिन्न द्रव्य हो जायेंगे, क्योंकि संयोग सम्बन्ध दो पदार्थों में होता है।
शब्द-अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है -शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोनों विभिन्न इन्द्रियों के द्वारा जाने जाते हैं । वादिदेव कहते हैं कि शब्द-अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण से उसका निरानरण हो जाता है। चाक्षुष-प्रत्यक्ष पट, कुट आदि पदार्थों को शब्द से भिन्न जानता है। इसी प्रकार श्रोत्र-प्रत्यक्ष भी कुटादि से भिन्न शब्द को जानता है।
अनुमान भी शब्द-अर्थ के तादात्म्य सम्बन्ध का विरोधी है--प्रभाचन्द्र और वादिदेव कहते हैं कि शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि स्तम्भ (खम्बा) और कुम्भ की भांति शब्द और अर्थ भिन्न देश, भिन्न काल और भिन्न आकार वाले हैं। इन दोनों का भिन्न होना असिद्ध नहीं है, क्योंकि शब्द कर्णकुहर में और अर्थ भूतल में उपलब्ध होता है । यदि दोनों अभिन्न देश में रहते, तो प्रमाता की शब्द के उपलब्ध करने में प्रवृत्ति होनी चाहिए, अर्थ में नहीं । किन्तु, अर्थ में ही उसकी प्रवृत्ति होती है, शब्द में नहीं । शब्द से पहले पदार्थ रहता है, इसलिए वे भिन्न काल वाले भी है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न आकार वाले भी शब्द-अर्थ सिद्ध हैं।"
एक बात यह भी है कि यदि अर्थ शब्दात्मक है तो शब्द की प्रतीति होने पर संकेत न जानने वाले को भी अर्थ में सन्देह नहीं
१. 'निरंशशब्दब्रह्मणि तथा वक्तुमशक्तेः ।', त० श्लो० वा०, १/३/२०, पृ० २४० २. 'तस्यावस्थानां चतसृणां सत्यत्वेऽद्वतविरोधात', वही ३. 'शब्दब्रह्मणोनंशस्य विद्यात्वसिद्धौ तदवस्थानाम विद्यात्वाप्रसिद्धः।', वही ४. ... शब्देनान्वितत्वमर्थस्य कुतश्चित् प्रमाणात् प्रतीयेत असति वा ?', प्रभाचन्द्र : म्या० कु. चं०, १५, पृ० १४४ ५. वही ६. 'अथ सति सम्बन्धे; ननु कोऽयं तस्य तेन सम्बन्ध: संयोगः, तादात्म्यम्, विशेषणीभावः वाच्यवाचकभावो बा ?', प्रभाचन्द्र : न्या. कु. चं०, पृ० १४४ ७. 'तत्सम्बन्धाभ्युपगमे च अनयो व्यान्तरत्वसिद्धिप्रसंगात् कथं तदद्वैतसिद्धिः स्यात ?', यही ८. द्रष्टव्य : स्या० २०, १/७, पृ. ६४ १.(क) 'नास्ति शब्दार्थयोस्तादात्म्ये विभिन्नदेश-काल-आकारत्वात ।', प्रभाचन्द्र : न्या० कु. चं०, पृ० १४४
(ख) वादिदेव : स्या० र०, १/७, पृ०६४ १०. वही
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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