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प्रकार जब शब्द रूप विशेषण को चाक्षुषज्ञान से नहीं जाना जाता, तो रूपयुक्त पदार्थ अर्थात् विशेष्य का ज्ञान भी नहीं हो सकता।' ऐसा मानना भी ठीक नहीं है कि दूसरे ज्ञान (श्रोत्रज्ञान ) में शब्द विशेषणरूप से प्रतीत होने पर पदार्थ का विशेषण बन जाता है। यहां दोष यह है कि शब्द और अर्थ में भेद सिद्ध हो जाएगा; यह पहले ही कहा जा चुका है कि जो-जो विभिन्न इन्द्रियों द्वारा जाने जाते हैं वे पृथक्-पृथक् होते हैं।
प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि शब्दाद्वैतवादी का यह कथन भी ठीक नहीं है कि शब्द से सम्बद्ध (मिले हुए) पदार्थ का स्मरण होने से उस पदार्थ को शब्द रूप मानते हैं। इस प्रकार शब्द से सम्बद्ध अर्थ का ज्ञान हो जायेगा। इस मान्यता में अन्योन्याश्रय नामक दोष आता है। तात्पर्य यह है कि शब्द से सम्बद्ध अर्थ की प्रतीति होने पर वचनसहित पदार्थ के स्मरण की सिद्धि होगी और वचनसहित पदार्थ का स्मरण होने पर शब्द रूप अर्थ के दर्शन की सिद्धि होगी। इस प्रकार विचार करने पर शब्दानुविद्धता का स्वरूप ही सिद्ध नहीं होता।
अर्थ की अभिधानानुषक्तता क्या है ?
शब्दाद्वैतवादी से प्रभाचन्द्राचार्य एक प्रश्न यह भी करते हैं कि निम्नांकित विकल्पों में से पदार्थ की अभिधानानुषक्तता क्या है ?*
१. अर्थज्ञान में शब्द का प्रतिभास होना । अथवा २. अर्थ के देश (स्थान) में शब्द का वेदन (अनुभव) होना। अथवा ३. अर्थज्ञान के काल में शब्द का प्रतिभास (प्रतीत) होना।
१. अर्थज्ञान में शब्द का प्रतिभास होना अर्थ की अभिधानानुषक्तता नहीं है, क्योंकि नेत्रजन्यज्ञान में शब्द का प्रतिभास या प्रतीति नहीं होती।
२. इसी प्रकार अर्थ की अभिधानानुषक्तता का मतलब अर्थ के देश में शब्द का अनुभव होना नहीं है, क्योंकि शब्द का श्रोत्र-प्रदेश में अनुभव होता है और शब्द से सर्वथा विहीन रूपादि स्वरूप पदार्थ का अपने प्रदेश में अपने विज्ञान से अनुभव होता है।
३. इसी प्रकार अर्थज्ञान के काल में शब्द का प्रतिभास होना भी अर्थ की अभिधानानुषक्तता नहीं है, क्योंकि समान काल में शब्द और अर्थ के होने पर भी समान काल शब्द का लोचनज्ञान में प्रतिभास नहीं होता और भिन्न ज्ञान से जानने पर शब्द और पदार्थ भिन्न-भिन्न सिद्ध होते हैं। इस प्रकार अर्थ की ही अभिधानानुषक्तता सिद्ध होती है।
एक बात यह भी है कि जो यह मानते हैं—प्रत्यक्ष-ज्ञान में अभिधानानुषक्त (शब्दसहित) पदार्थ ही प्रतिभासित होता है, उसके यहां बालक आदि को अर्थ के दर्शन की सिद्धि कैसे होगी, क्योंकि बालक मूक आदि शब्द को नहीं जानते। इसी प्रकार मन में 'अश्व' का विचार करने वाले को गो-दर्शन कैसे होगा, क्योंकि उस समय उस व्यक्ति को 'गो' शब्द का उल्लेख नहीं होता। ऐसा मानना भी ठीक नहीं है कि एक साथ अश्व का विचार और गो-दर्शन दोनों हो रहे हैं । इस मान्यता में दोनों अर्थात् अश्व का विकल्प और गो-दर्शन असिद्ध हो जायेंगे, क्योंकि संसारी व्यक्ति में एक साथ दो शक्तियां नहीं हो सकतीं।"
वैखरी आदि का लक्षण असत्य है-शब्दादतवादी का यह कथन भी ठीक नहीं है कि ज्ञान में वापता शाश्वती है। यदि उसका उल्लंघन किया जायेगा, तो ज्ञानरूप प्रकाशित नहीं हो सकेगा। इस कथन के ठीक न होने का कारण यह है कि चाक्षुष-प्रत्यक्ष में शब्द (वाग्रूपता) का संस्पर्श (संसर्ग) नहीं होता । श्रोत्र से ग्रहण करने योग्य वैखरी (वचनात्मक) वापता का भी संस्पर्श चाक्षुष-प्रत्यक्ष नहीं करता, क्योंकि वैखरी चाक्षुष-प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। इसी प्रकार अन्तर्जल्पयुक्त मध्यमा वाक् को चाक्षुष-प्रत्यक्ष संस्पर्श नहीं करता, फिर भी (उसके बिना भी) शुद्ध रूपादि का ज्ञान होता है। जिससे समस्त वर्णादि विभाग का संहार हो गया है, ऐसी पश्यन्ती (अर्थदर्शनरूपा) और आत्मदर्शनरूपा सूक्ष्मा वाग्रूपता वाणीरूपा हो ही नहीं सकती। शब्दाद्वैतवाद में पश्यन्ती और सूक्ष्मा को अर्थ एवं आत्मा का साक्षात् (दर्शन) करने वाली माना है । जब उन दोनों में शब्द नहीं हैं, तो वे वाणी कैसे कहलायेंगी, क्योंकि वाणी वर्ण, पद और वाक्यरूपा होती है। अत: वागादि
१. प्र. क० मा०, १३, पृ०४० २. 'तथा सति अनयो दसिद्धिः ।', वही ३. 'अन्योन्याश्रयानुषंगात "1", वही, १,३, पृ०४१ ४. बही, १/३, पृ. ४१ ५. वही ६. 'कथं चैववादिनो बालकादेरर्थदर्शनसिद्धिः, तत्राभिधाना प्रतीते....।', वही ७. वही, १३, पृ० ४१ ८. वही
जैन दर्शन मीमांसा
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