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क्या इसलिए उसे शब्दमय माना जाता है कि जगत् शब्द का परिणाम है या इसलिए कि वह शब्द से उत्पन्न हआ है?' इन दो विकल्पों के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है, जिससे जगत् को शब्दमय सिद्ध किया जा सके।
जगत् शब्द का परिणाम नहीं है ---उपर्युक्त दो विकल्पों में से शब्दाद्वैतवादी इस विकल्प को माने कि जगत् शब्द का परिणाम होने के कारण शब्दमय है, तो उनकी यह मान्यता न्यायसंगत नहीं है। क्योंकि प्रथमतः निरंश और सर्वथा नित्य शब्द-ब्रह्म में परिणाम हो ही नहीं सकता। शब्दब्रह्म में जब परिणमन असम्भव है, तो जगत् शब्दब्रह्म का परिणाम कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता।
शब्दब्रह्म परिणमन करते समय अपने स्वाभाविक स्वरूप को छोड़ता है या नहीं? --शब्दब्रह्म को परिणामी मानने पर प्रश्न होता है कि शब्दात्मक ब्रह्म जब नील आदि पदार्थ रूप से परिणमित होता है, तो वह अपने स्वाभाविक शब्दरूप स्वभाव का त्याग करता है अथवा नहीं?" यदि उपर्युक्त विकल्पों में से यह माना जाय कि शब्दब्रह्म परिणमन करते समय अपने स्वाभाविक स्वरूप को छोड़ देता है, तो ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दब्रह्म में विरोध' नामक दोष आता है । शब्दब्रह्म का स्वरूप अनादिनिधन है और जब वह अपने पूर्व स्वभाव का त्याग कर जलादि रूप से परिणमन करेगा, तो उसके अनादिनिधनत्व (पूर्व स्वभाव) का विनाश हो जायेगा; जो शब्दाद्वैतवादियों को अभीष्ट नहीं है । अत: शब्दब्रह्म अपने पूर्व स्वरूप को त्याग कर जलादिरूप से परिणमन करता है, यह विकल्प ठीक नहीं है।
उपर्युक्त दोष से बचने के लिए यह माना जाय कि शब्दब्रह्म अपने स्वाभाविक पूर्व स्वरूप को छोड़े बिना जलादि पदार्थ रूप से परिणमन करता है तो उनकी यह मान्यता भी निर्दोष नहीं है। इस दूसरे विकल्प के मानने पर एक कठिनाई यह आती है कि नीलादि पदार्थ के संवेदन के समय बधिर (जिसे सुनाई नहीं पड़ता है) को शब्द का संवेदन होना चाहिए, क्योंकि वह नील पदार्थ शब्दमय है' अर्थात् नील पदार्थ और नील शब्द अभिन्न हैं । इस बात की पुष्टि अनुमान प्रमाण से भी होती है कि जो जिससे अभिन्न होता है, वह उसका संवेदन होने पर संविदित हो जाता है। जैसे—पदार्थों के नील आदि रंग को जानते समय उससे भिन्न नील पदार्थ भी जान लिया जाता है। शब्दाद्वैतवादियों के सिद्धान्तानुसार नील-पीत आदि पदार्थ से शब्द अभिन्न है। इसलिए जब बधिर पुरुष नील पदार्थ को जानता है, तो उसी समय अर्थात् नील पदार्थ जानते समय उसे शब्द का संवेदन अवश्य होना चाहिए । शब्दाद्वैतवादी कहते हैं कि शब्द का संवेदन बधिर मनुष्य को नहीं होता, तो प्रभाचन्द्र आदि आचार्य प्रत्युत्तर में कहते हैं कि उसे नीलादि रंग का भी संवेदन नहीं होना चाहिए, क्योंकि नील पदार्थ के साथ जिस प्रकार रंग तादात्म्य रूप से रहता है, उसी प्रकार शब्द का भी उसके साथ तादात्म्य सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों में नील रंग और शब्द दोनों नील पदार्थ से अभिन्न हैं। यदि नील पदार्थ के नीले रंग का अनुभव हो और उससे अभिन्न शब्द का अनुभव बधिर पुरुष को न हो तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक वस्तु में दो विरुद्ध धर्म हैं । दो विरुद्ध धर्मों से युक्त उस शब्द-ब्रह्म को नील पदार्थ से भिन्न मानना पड़ेगा। एक वस्तु का एक ही समय में एक ही प्रतिपत्ता (ज्ञाता) की अपेक्षा से ग्रहण और अग्रहण मानना ठीक नहीं है। इस प्रकार विरुद्ध धर्माध्यास होने पर भी नीलादि पदार्थ और शब्द में भेद सिद्ध होता है । यदि उनमें भेद न माना जाय तो हिमालय और विन्ध्याचल आदि में भी भेद असंभव हो जायेगा। शब्दब्रह्म अपने पूर्व स्वभाव को छोड़कर नीलादि पदार्थ रूप में परिणमित होता है, ऐसा मानना भी निर्दोष नहीं है। अतः जगत् को शब्दमय मानना ठीक नहीं।
१. 'किमत्र जगत: शब्दपरिणामरूपत्वाच्छब्दमयत्वं साध्यते उत शब्दात तस्योत्पत्तेः शब्दम्यत्वं यथा अन्नमयाः प्राणा, इति हेतो।' (क) सं० त० प्र. टीका, पृ० ३८०-३८१ (ख) प्र० क० मा०, १/३, पृ०४३ (ग) न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४५, स्या० र०, पृ० १००
(घ) त० सं० टीका, का० १२६, पृ० ८६. २. 'न तावदाद्य: पक्षः परिणामानुपपत्तेः।', न्या० कु० च०, १/५, पृ०१४५ ३. 'शब्दात्मक हि ब्रह्म नीलादिरूपता प्रतिपद्यमानं स्वभाविक शब्दरूपं परित्यज्य प्रतिपद्यत, अपरित्यज्य वा?', वही ४. (क) 'प्रथमपक्षे अस्याऽनादिनिधिनत्वविरोध...।', अभवदेवसूरि : सं० त०प्र०, पृ० ३८१ (ख) प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १३, पृ० ४३ (ग) प्रभाचन्द्र : न्या० ० ०,१५, पृ० १४६ (घ) वादिदेवसूरि : स्या० २०१७,१०१०० (ङ) 'न वा तथेति यद्याद्यः पक्षः संधीयते तदा।
अक्षरत्ववियोग: स्यात पौरस्त्यात्मविनाशात ॥', त० सं०, का० १३०,
और भी देखें: टीका, पृ०८७ ५. ... रूपसंवेदनसमये बधिरस्य शब्दसंवेदनप्रसंगः।', वही ६. 'यत्खलु यदव्यतिरिक्त तत्तस्मिन्सवेद्यमाने संवेद्यते", नीलाद्यव्यतिरिक्तश्च शब्द इति ।', वही
तुलना करें : त० सं०, का० १३१ एवं पंजिका टीका, पु०८७
जैन दर्शन मीमांसा
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