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________________ प्रभाचन्द्र वादिदेव सूरि आदि जैन आचार्य शब्दाद्वैतवादियों से एक प्रश्न यह भी करते हैं कि शब्दब्रह्म उत्पत्ति और विनाश रूप परिणमन करता हुआ प्रत्येक पदार्थ में भिन्न परिणाम को प्राप्त होता है या अभिन्न ?' यदि यह माना जाय कि शब्दब्रह्म परिणमन करता हुआ, जितने पदार्थ हैं, उतने ही रूपों में होता है तो शब्दाद्वैतवादियों का ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दब्रह्म में अनेकता का प्रसंग आता है। जितने स्वभाव वाले विभिन्न पदार्थ हैं, उतने स्वभाव वाला ही शब्दब्रह्म को मानना पड़ेगा। इस दोष से बचने के लिए ऐसा माना जाय कि शब्दब्रह्म जब अनेक पदार्थरूप में परिणमित होता है, तो वह प्रत्येक पदार्थ में भिन्न परिणाम को प्राप्त नहीं होता अर्थात् अभिन्न रूप से परिणमन करता है। इस सन्दर्भ में प्रभाचन्द्रादि कहते हैं कि यह पक्ष भी निर्दोष नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से नील-पीत आदि पदार्थों में देश-भेद, काल-भेद, स्वभाव-भेद, अवस्था-भेद आदि का अभाव हो जायेगा । तात्पर्य यह है कि जो एक स्वभाव वाले हैं, वे शब्द-ब्रह्म से अभिन्न हैं । जबकि प्रत्यक्ष रूप से सबको देश-भेद, काल-भेद, स्वभाव-भेद आदि भेदों का अनुभव होता है। अतः ऐसा मानना न्यायसंमत नहीं है कि शब्दब्रह्म परिणमन करता हुआ प्रत्येक पदार्थ में भिन्नता को प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार दोनों विकल्प सदोष होने पर यह सिद्ध हो जाता है कि शब्द का परिणाम होने से जगत् शब्दमय नहीं है। शब्द से उत्पन्न होने के कारण जगत् शब्दमय सिद्ध नहीं होता-प्रभाचन्द्र, वादिदेव सूरि आदि जैनतर्कवादी कहते हैं कि शब्दाद्वतवादियों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि शब्दब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण जगत् शब्दमय है, क्योंकि उन्होंने शब्दब्रह्म को सर्वथा नित्य माना है। सर्वथा नित्य होने से वह अविकारी है अर्थात् उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता। नित्य शब्दब्रह्म से क्रमश: कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतः सम्पूर्ण कार्यों की एक साथ एक ही समय में उत्पत्ति हो जायेगी, क्योंकि यह नियम है कि समर्थ कारण का अभाव (वैकल्य)होने पर कार्यों की उत्पत्ति में विलम्ब होता है । समर्थ कारण के उपस्थित रहने पर कार्यों की उत्पत्ति में विलम्ब नहीं होता। जब शब्दब्रह्म कारण अविकल्प (समर्थ) रूप से विद्यमान है, तब कार्यों को और किसकी अपेक्षा है, जिससे उनकी एक साथ उत्पत्ति न हो। समर्थ कारण के रहने पर अवश्य ही समस्त कार्यों की उत्पत्ति हो जायेगी। घटादि कार्य-समूह शब्दब्रह्म से भिन्न उत्पन्न होता है या अभिन्न ?-प्रभाचन्द्राचार्य और वादिदेव सूरि एक प्रश्न यह भी करते हैं कि घट, पटादि कार्य-समूह शब्दब्रह्म से भिन्न उत्पन्न होता है या अभिन्न ? ६ यदि शब्दाद्वैतवादी इसके उत्तर में यह कहें कि घट, पटादि कार्य-समूह शब्दब्रह्म से भिन्न उत्पन्न होता है, तो प्रत्युत्तर में जैन दार्शनिक कहते हैं कि शब्दाद्वैतवादी का 'शब्दब्रह्मविवर्तमर्थरूपेण' (शब्दब्रह्म अर्थरूप से परिणमन करता है) यह कथन कैसे बनेगा अर्थात् नहीं बनेगा । शब्दब्रह्म से जब घट-पटादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं और वे उनके स्वभावरूप नहीं हैं, तो यह कहना उचित नहीं है कि घट, पटादि पदार्थ शब्दब्रह्म की पर्याय हैं। शब्दब्रह्म से घटादि कार्य भिन्न हैं, तो अद्वैतवाद का विनाश और द्वैतवाद की सिद्धि होती है। क्योंकि, शब्दब्रह्म से भिन्न कार्य की स्वतंत्र सत्ता सिद्ध हो जाती है। अतः घटादि कार्य समूह शब्दब्रह्म से भिन्न उत्पन्न होता है-यह मान्यता ठीक नहीं है। घटादि कार्य की शब्दब्रह्म से अभिन्न उत्पत्ति मानने में शब्दब्रह्म में अनादिनिधनत्व का विरोध है— उपर्युक्त दोष से बचने के लिए शब्दाद्वैतवादी यह माने कि घटादि कार्य शब्दब्रह्म से अभिन्न रूप होकर उत्पन्न होता है, तो उनकी यह मान्यता भी ठीक नहीं है, १. 'किंच असौ शब्दात्मा परिणामं गच्छन्प्रति पदार्थभेदं प्रतिपद्यते, न वा ?' (क) प्र०क० मा०, १/३, पृ० ४४ (ख) न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४६ (ग) स्या० र०, १/७, पृ० १०१ २. 'तत्राद्यविकल्पे शब्दब्रह्मणोऽनेकत्वप्रसंग:, विभिन्नानेकस्वभावार्थात्मकत्वात् तत्स्वरूपवत् ।', वही ३. 'तन्न शब्दपरिणामत्वाज्जगतः शब्दमयत्वं घटते ।', वही, ४. (क) प्रभाचन्द : न्या० क. चं०, १/५, पृ० १४६ (ख) प्रभाचन्द्र : प्र. क. मा०, १/३, पृ० ४४ ।। (ग) वादिदेव सूरि : स्या०र०, १/७, पृ०१०१ ५. 'कारणवैकल्याद्धि कार्याणि विलम्वन्ते नान्यथा । तच्चेदविकलं किमपरं तैरपेक्ष्यं येन युगपन्न भवेयुः ?' (क) प्र. क० मा०, पृ० ४४ (ख) न्या० क. चं० १० १४७ ६. 'किंच अपरापरकार्य ग्रामोऽतोऽर्थान्तरम् अनर्थान्तरं बोत्पद्यत ?' (क) प्र. क. मा०, १/३, पृ० ४४ (ब) स्या० २०, १/७, पृ० १०१ ७. वादिदेव सूरि : स्या०र०,१/७, पृ० १०१ १२६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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