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आगम प्रमाण से शब्द-ब्रह्म की सिद्धि संभव नहीं है
आगम प्रमाण से शब्दब्रह्म की सिद्धि भी तर्कसंगत नहीं है। एतदर्थ विद्यानन्द कहते हैं कि यदि शब्दाद्वैतवादी जिस आगम से शब्दब्रह्म की सिद्धि मानेंगे, तो उसी आगम से भेद की सिद्धि भी क्यों नहीं मानेंगे?' इस प्रकार आगम शब्दब्रह्म का साधक नहीं है।
निर्बाध आगम प्रमाणान्तर से सिद्ध नहीं है—शब्दाद्वैतवादियों का यह कहना कि निर्बाध (बाधारहित) आगम से शब्दब्रह्म की सिद्धि होती है, ठीक नहीं है । अनुमान, तर्क आदि प्रमाणों के द्वारा उसकी निर्वाधता सिद्ध होने पर ही तर्कशास्त्री उसे निधि आगम मान सकते हैं, लेकिन प्रमाणों से उसकी निर्बाधता सिद्ध नहीं होती। अनुमानादि से रहित उस आगम की निर्बाधता तर्कशास्त्रियों को मान्य नहीं है।
शब्दब्रह्म से भिन्न आगम नहीं है-विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, वादिदेव सूरि विकल्प प्रस्तुत करते हुए पूछते हैं कि शब्दब्रह्म से आगम भिन्न है अथवा अभिन्न ? शब्दाद्वैतवाद में शब्द-ब्रह्म से भिन्न को आगम नहीं माना गया है । जब वह आगम उससे भिन्न नहीं है, तो उससे शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं हो सकती। आगम को ब्रह्म से भिन्न मानने पर द्वैत की सिद्धि हो जाएगी।
उपर्युक्त दोष से बचने के लिए शब्दाद्वैतवादी यह युक्ति दें कि आगम शब्दब्रह्म का विवर्त है, अत: उससे उसकी सिद्धि हो जायेगी। इसके उत्तर में विद्यानन्द का कथन है कि ऐसा मानने पर आगम अविद्या स्वरूप सिद्ध हुआ । जो अविद्या स्वरूप है, वह अविद्या की तरह अवस्तु अर्थात् असत् सिद्ध हुआ। अतः अवस्तुरूप आगम वस्तुभूत ब्रह्म का साधक नहीं हो सकता।।
आगम को शब्द-ब्रह्म से अभिन्न मानने में दोष--अब यदि शब्दाद्वैत-सिद्धान्ती माने कि आगम शब्दब्रह्म से अभिन्न है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि आगम को ब्रह्म से अभिन्न मानने पर तद्वत आगम भी असिद्ध हो जायेगा। इस प्रकार सिद्ध है कि आगम प्रमाण भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है।
आगम को शब्दब्रह्म का साधक मानने से परस्पराश्रय नामक दोष भी आता है, क्योंकि ब्रह्म का अस्तित्व हो तो आगम सिद्ध हो और आगम हो तो उससे ब्रह्म की सिद्धि हो। इस प्रकार सिद्ध है कि आगम और शब्दब्रह्म दोनों की सिद्धि परस्पर आश्रित है। अतः प्रत्यक्षअनुमान की भांति आगम-प्रमाण से भी शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं होती। इन प्रत्यक्षादि प्रमाणों के अतिरिक्त कोई अन्य प्रमाण ऐसा नहीं है, जिससे उसकी सिद्धि हो सके। प्रमाणों के द्वारा सिद्ध न होने पर भी यदि किसी पदार्थ को सिद्ध मान लिया जाए, तो वह तार्किकों के समक्ष जल के बुलबुले के समान अधिक समय तक स्थित नहीं रह सकेगा। तात्पर्य यह है कि जिस पदार्थ की सिद्धि प्रमाणों से नहीं होती, वह तर्कशास्त्रियों को मान्य नहीं होता । शब्दब्रह्म भी किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, इसलिए उसका अस्तित्व नहीं है।
जगत् शब्दमय नहीं
शब्दाद्वैतवादी सम्पूर्ण जगत् को शब्दमय मानते हैं। उनका यह मत तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि जब उस पर विचार किया जाता है, तो तार्किक रूप से वह शब्दमय सिद्ध नहीं होता। सन्मतितर्कप्रकरण के टीकाकार अभयदेव सूरि, प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के प्रणेता प्रभाचन्द्र और स्याद्वादरत्नाकरकार वादिदेवसूरि ने गम्भीरतापूर्वक विचार कर यह सिद्ध किया है कि जगत् शब्दमय नहीं है। तत्वसंग्रह और उसकी पंजिका टीका में भी जैन आचार्यों की भांति तार्किक रूप से जगत् के शब्दमय होने का निराकरण किया गया है।
उपर्युक्त आचार्य कहते हैं कि यदि सम्पूर्ण जगत् शब्दमय है तो शब्दाद्वैतवादियों को बताना होगा कि जगत् शब्दमय क्यों है ?
१. 'आगमादेव तत्सिद्धौ भेदसिद्धिस्तथा न किम् ॥', त० श्लो० वा०, १/३, सूत्र २०, श्लोक ६६ २. 'निर्बाधादेव चेत्तत्व न प्रमाणांतरादृते ।
तदागमस्य निश्चेतु शक्यं जातु परीक्षकः ।', वही, श्लोक १६-१०० ३. (क) त० श्लो. वा०, १/३, सू० २०, श्लोक १०, पृ० २४१ (ख) प्र० क० मा०, १/३, पृ० ४६
(ग) स्या० र०, १/७, पृ० १०१-१०२ ४. 'न चागमस्ततो भिन्नसमस्ति परमार्थतः ।।', त० श्लो० वा०, १/३, सूत्र २०, फ्लोक १०० ५. (क) ... ब्रह्मणोऽर्थानन्तरभावे-द्वैतप्रसंगात् ।', प्रभाचन्द्र : प्र०क० मा०, १/३, ४६
(ख) वादिदेवसूरि : स्या० र०, १/७, पृ०१०१ ६. 'सद्विवर्तस्त्वविद्यात्मा तस्य प्रज्ञापकः कथं ।', त० प्रलो० बा०, १/३, सूत्र २०, पलोक १०१ ७. (क) 'अनर्थान्तरभावे तु तद्वदागमस्याप्य सिद्धिप्रसंङ्गः ।', प्र० क. मा०, १/३, पृ० ४६
(ख) स्या० र०,१७, पृ० १०२ ८. 'न चाविनिश्चिते तत्वे फेनबुबुद्भिदा।', त० श्लो० वा०, १/३, सू० २०, का० १०१
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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