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________________ होता है ? दो ही विकल्प हो सकते हैं; (क) श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से ? अथवा (ख) थोत्रेन्द्रिय से भिन्य अन्य किसी इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से ? श्रोवेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है : श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को शब्दब्रह्म का साधक मानना ठीक नहीं है, क्योंकि श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष केवल शब्द को ही विषय करता है। दूसरे शब्दों में श्रोत्र का विषय शब्द है। अतः शब्द के अतिरिक्त वह अन्य किसी को नहीं जान सकता। यही कारण है कि श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष अपने विषय से भिन्न संसार के समस्त पदार्थों में अन्वित रूप से रहने वाले शब्दब्रह्म को जानने में असमर्थ है। अनुमान-प्रमाण से भी यही सिद्ध होता है कि शब्दब्रह्म श्रोत्रजन्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। जो जिसका विषय नहीं होता, वह उससे अन्वित रहने वाले को कभी भी जानने में समर्थ नहीं हो सकता। जैसे-चक्षु-ज्ञान रसनेन्द्रिय से नहीं जाना जाता। चूंकि समस्त संसार के सभी पदार्थों में अन्वित रूप से रहने वाला शब्दब्रह्म श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं है, अतः श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष भी उपरिवत् उसका साधक नहीं हो सकता।" श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का विषय न होने पर भी यदि शब्दाद्वैतवादी श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को शब्दब्रह्म का साधक मानेंगे तो समस्त इन्द्रियों से सभी पदार्थों के ज्ञान का प्रसंग आयेगा, जो किसी को मान्य नहीं है। अतः सिद्ध है कि श्रोत्रेन्द्रियजनित प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है। शब्द श्रोत्रेतरेन्द्रिय का विषय नहीं है-श्रोत्रेन्द्रिय-भिन्न इन्द्रिय से जन्य प्रत्यक्ष भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है, क्योंकि शब्द उन इन्द्रियों का विषय नहीं है। अतः इन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा शब्दब्रह्म की प्रतीति नहीं हो सकती। अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है-इन्द्रिय प्रत्यक्ष की भांति अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा भी शब्दब्रह्म की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि शब्दाद्वैतवाद में अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसके उत्तर में शब्दाद्वैतवादियों का कहना है कि अभ्युदय और निःश्रेयस फल वाले धर्म से अनुगहीत अन्तःकरण वाले योगीजन उस शब्दब्रह्म को देखते हैं। अतः उनके अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से शब्दब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। इसके प्रत्युत्तर में प्रभाचन्द्राचार्य एवं वादिदेवसूरि कहते हैं कि ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पहली बात तो यह है कि शब्दब्रह्म को छोड़कर अन्य कोई परमार्थभूत योगी नहीं है, जो उसे देखता हो । दूसरी बात यह है कि शब्दब्रह्म के अतिरिक्त पारमार्थिक रूप से योगी मानने पर योगी, योग और उससे उत्पन्न प्रत्यक्ष इन तीन तत्वों को मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से अद्वैतवाद का अभाव हो जायेगा। एक प्रश्न के प्रत्युत्तर में जैनतर्कशास्त्री यह भी कहते हैं कि योग्यावस्था में शब्दब्रह्म स्वयं आत्मज्योतिरूप से प्रकाशित होता है । यह मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार की कल्पना करने पर भी योग्यावस्था, ज्योतिरूप और स्वयंप्रकाशन इन तीनों की सत्ता सिद्ध होने से द्वैत की सिद्धि और अद्वैत का अभाव सिद्ध होता है।" शब्दाद्वैतवादियों को एक बात यह भी स्पष्ट करनी चाहिए कि योग्यावस्था में आत्मज्योतिरूप से प्रकाशित होने के पूर्व शब्दब्रह्म आत्मज्योति रूप से प्रकाशित होता है कि नहीं?८ यदि शब्दब्रह्म योग्यावस्था के पूर्व आत्मज्योति रूप से प्रकाशित होता है, यह माना जाय तो समस्त संसारी जीवों को बिना प्रयत्न के मोक्ष हो जायेगा, क्योंकि शब्दाद्वैत-सिद्धान्त में ज्योतिरूप ब्रह्म का प्रकाश हो जाना ही मोक्ष कहा गया है । अयोग्यावस्था में इस प्रकार के ज्योतिस्वरूप ब्रह्म के प्रकाशित हो जाने पर सबका मुक्त हो जाना युक्तिसंगत है। लेकिन १. (क) तथा विधस्य चास्यसद्भाव: श्रोत्नप्रभवप्रत्यक्षात्, इतरेन्दियजनिताध्यक्षाद्वा प्रतीयेत् ।,' प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४२ (ख) वादिदेवसूरि : स्या० र०, १७, पृ० ६८ २. वही ३. (क) 'यद्यदगोचरो न तत्तेनान्वितत्व कस्यचित् प्रतिपत्तुं समर्थम् यथा चक्षुर्ज्ञानं रसेन, अगोचरश्च तदाकारनिकटः श्रोत्रज्ञानस्येति ।', न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४२ (ख) स्या० र०, १/७, पृ०६८ ४. (क) स्या० २०, १/७, पृ०६८ (ख) न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४२ ५. 'नाप्यतीन्द्रियप्रत्यक्षात; तस्यैवानाऽसंभावात् ।' (क) प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, पृ० १४२ (ख) वादिदेवसूरि : स्याद्वादरत्नाकर, १/७, पृ०६६ ६. वही ७. वही ८. (क) किं च, योग्यावस्थायां तस्य तद्रूपप्रकाशनेन ततः प्राक् तद्रूप प्रकाशते, न वा ?', वही (ख) अभयदेव सूरि : सन्मतितर्कप्रकरणटीका, तृतीय काण्ड, पृ० ३८५ (ग) तत्वसंग्रपन्जिका, पृ०७४ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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