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वादियों ने उसे एक परमतत्व माना है। जैनतर्कशास्त्रियों का मत है कि 'शब्द' प्रमेय है, और प्रमेय के अस्तित्व की सिद्धि प्रमाण के अधीन होती है। आचार्य विद्यानन्द, अभयदेव सूरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेव सूरि आदि जैनतर्कशास्त्रियों का कथन है कि यदि शब्दब्रह्मसाधक कोई प्रमाण होता है, तो उसकी सत्ता मानना ठीक था, लेकिन कोई भी प्रमाण ऐसा नहीं है, जिसके द्वारा उसकी सत्ता सिद्ध होती हो । अतः प्रमाण के अभाव में शब्दब्रह्म की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। आचार्य विद्यानन्द आदि जैनन्यायशास्त्रियों का तर्क है कि यदि शब्दब्रह्मसाधक कोई प्रमाण है, तो प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों में से कोई एक हो सकता है।' शब्दब्रह्माद्वैतवादियों से वे प्रश्न करते हैं कि वे उपयुक्त तीन प्रमाणों में से किस प्रमाण से शब्दब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध करते हैं। इन आचार्यों ने इसकी विस्तार से समीक्षा की है।
शब्दब्रह्म के अस्तित्व का निराकरण करते हुए तत्वसंग्रहकार शान्तरक्षित की भांति जैन दार्शनिक आ विद्यानन्द, अभयदेव सूरि, प्रभाचन्द्र और वादिदेव सूरि कहते हैं कि प्रत्यक्ष-प्रमाण शब्दब्रह्म का साधक नहीं है। प्रभाचन्द्राचार्य और वादिदेवसूरि शब्दाद्वैतवादियों से प्रश्न करते हैं कि यदि वे प्रत्यक्ष-प्रमाण को शब्दब्रह्म का साधक मानते हैं, तो यह बतलाना होगा कि निम्नांकित प्रत्यक्ष में से किस प्रत्यक्ष से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है
(क) इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से? अथवा (ख) अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से? अथवा (ग) स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से?
(क) इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है
आचार्य विद्यानन्द तत्वार्थश्लोकवार्तिक में कहते हैं कि इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष-प्रमाण से शब्दब्रह्म की सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि शब्दाद्वैतवादियों ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्वप्नादि अवस्था में होने वाले प्रत्यक्ष की भांति मिथ्या माना है। अत: इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमेय रूप सम्यक शब्द का साधक कैसे हो सकता है ? इस प्रकार सिद्ध है कि इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है । इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि शब्दाद्वैतवादियों ने शब्दब्रह्म का जैसा स्वरूप प्रतिपादित किया है, वैसा किसी को इन्द्रिय प्रत्यक्ष-प्रमाण से प्रतीत नहीं होता। सन्मतितर्कप्रकरणटीका में अभयदेवसूरि और प्रमेयकमलमार्तण्ड में प्रभाचन्द्र कहते हैं कि इन्द्रियां वर्तमानकालवर्ती, सम्मुखस्थित मूर्तिक (स्थूल) पदार्थों को ही जानती हैं । इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष सूक्ष्म शब्दब्रह्म का साधक नहीं हो सकता। यदि इन्द्रिय प्रत्यक्ष उसका साधक होता तो आज भी उसकी प्रतीति सभी को होनी चाहिए थी, लेकिन किसी को इसकी प्रतीति नहीं होती। अत: सिद्ध है कि इन्द्रिय प्रत्यक्ष शब्दब्रह्म का साधक नहीं है।
शब्दब्रह्म का सद्भाव किस इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से होता है : इन्द्रिय प्रत्यक्ष को उसका साधक मानने पर प्रभाचन्द्र और वादिदेवसूरि एक यह भी प्रश्न शब्दाद्वैतवादियों से पूछ ते हैं कि स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों में से किस इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से शब्दब्रह्म का सद्भाव प्रतीत
१. 'प्रमाणाधीना हि प्रमेयव्यवस्था।', अभयदेवसूरि : सन्मतितर्कप्रकरणटीका, पृ० ३८४ २. (क) 'न चवभूतब्रह्मसिद्धये प्रमाणमुपलभ्यते।', वही, तृतीय विभाग, गा० ६, पृ० ३८४
(ख) 'शब्दब्रह्मणः सद्भावे प्रमाणाभावात् ।' ३. (क) तद्धि शब्दब्रह्मनिरंश मिन्द्रियप्रत्यक्षादनुमानात्स्वसंवेदनप्रत्यक्षादागमाद्वा न प्रसिद्ध ।',
विद्यानन्द : तत्वार्थलोकवार्तिक, अध्याय १. तृतीय आह्निक, सूत्र २०, पृ० २४० (ख) 'तथाहि तत्सद्भाव: प्रत्यक्षेण प्रतीयतानुमानेनागमेन वा ।', वादिदेवसूरि : स्याद्वादरत्नाकर, १/७, पृ०६८ ४. (क) यतस्तत्सद्भाव: कि मिन्द्रियप्रभवप्रत्यक्षतः प्रतीयेत्, अतीन्द्रियात् स्वसंवेदनाद्वा?', प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, १५, पृ० १४२
(ख) यदि प्रत्यक्षेण, तत्किमिन्द्रियप्रभवेणातीन्द्रियेण वा।', स्या० र०, १/७, पृ०६८ ५. 'ब्रह्मणो न व्यवस्थानमक्षज्ञानात् कुतश्चन ।
स्वप्नादाविव मिथ्यात्वत्तस्य साकल्पतः स्वयम् ।', विद्यानन्द : त० श्लो० वा०, १/३, सून २०, कारिका ६७, पृ० २४० ६. 'न तावत् प्रत्यक्षं तथावस्थितब्रह्मस्वरूपावेदकम् नीलादिव्यतिरेकेण तवापरस्य ब्रह्मस्वरूपस्याप्रतिभासनात् ।',
अभयदेवसूरि : सन्मतितर्कप्रकरणटीका, विभाग ३, का० ६, पृ० ३८४ ७. 'न खलु यथोपवर्णितस्वरूपं शब्दब्रह्म प्रत्यक्षतः प्रतीयते, सर्वदा प्रतिनियतार्थस्वरूपग्राहकत्वेनवास्य प्रतीते: ।',
प्रभाचन्द्राचार्य : प्रमेय कमलमार्तण्ड १/३ प० ४५ तुलना कीजिये : 'न तत्प्रत्यक्षत: सिद्धमविभागमभासनात् ।', शान्तिरक्षित : तत्वसंग्रह, कारिका १४७ ११८
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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