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समस्त जगत् शब्दब्रह्ममय है—शब्दाद्वैतवादियों ने इस सम्पूर्ण विश्व को ब्रह्ममय बतलाया है, क्योंकि विश्व उसका विवर्त है। संसार के सभी पदार्थ शब्दाकारयुक्त हैं, यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जो शब्दाकारयुक्त न हो।
दूसरी बात यह है कि जो जिस आकार से अनुस्यूत होते हैं, वे तद्रूप होते हैं। जैसे घट, सकोरा, दीया आदि मिट्टी के आकार से अनुगत होने के कारण मिट्टी रूप ही होते हैं । संसार के सभी पदार्थ शब्दाकार से अनुस्यूत हैं, अतः सम्पूर्ण जगत् शब्दमय है। इस प्रकार अनुमान प्रमाण से शब्दाद्वैतवादी जगत् को शब्दब्रह्ममय सिद्ध करते हैं।'
केवलान्वयी अनुमान के अतिरिक्त केवलव्यतिरेकी अनुमान के द्वारा भी उन्होंने जगत् को शब्दब्रह्ममय सिद्ध किया है। यथा— अर्थ शब्द से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि वे प्रतीति अर्थात् ज्ञान में प्रतीत होते हैं। जो प्रतीति में प्रतीत होते हैं, वे उससे भिन्न नहीं होते, जैसे-शब्द का स्वरूप । अर्थ की प्रतीति भी शब्द-ज्ञान के होने पर होती है। इसलिए अर्थ शब्दब्रह्म से भिन्न नहीं है। इस प्रकार प्रत्यक्ष-प्रमाण से शब्दब्रह्म की सिद्धि होती है।
ज्ञान भी शब्द के बिना नहीं होता–समस्त जगत् को शब्दब्रह्मरूप सिद्ध करने के बाद शब्दाद्वैतवादी कहते हैं कि संसार के सभी ज्ञान शब्दब्रह्म रूप हैं । उनका तर्क है कि समस्त ज्ञानों की सविकल्पकता का कारण भी यही है कि वे शब्दानुविद्ध अर्थात् शब्द के साथ अभिन्न रूप से संलग्न हैं । ज्ञानों की वागरूपता शब्दानुविद्धत्व (शब्द से तादात्म्य सम्बन्ध) के कारण है। शब्दानुविद्धत्व के बिना उनमें प्रकाशरूपता ही नहीं बनेगी। तात्पर्य यह है कि ज्ञान शब्दसंस्पर्शरूप है, इसलिए वे सविकल्प और प्रकाशरूप हैं। यदि ज्ञान को शब्द-संस्पर्श से रहित माना जाय तो वे न तो सविकल्प (निश्चयात्मक) हो सकेंगे और न प्रकाशरूप । फलतः न तो ज्ञान वस्तुओं को प्रकाशित कर सकेगा और न उनका निश्चय कर सकेगा।
अतः ज्ञान में जो वागरूपता है, वह नित्या (शाश्वती) और प्रकाश-हेतुरूपा है । ऐसी वागरूपता के अभाव में ज्ञानों का और कोई रूप अर्थात् स्वभाव शेष नहीं रहता। यह जितना भी वाच्य-वाचक तत्व है, वह सब शब्दरूप ब्रह्म का ही विवर्त अर्थात् पर्याय है । वह न तो किसी का विवर्त है और न कोई स्वतन्त्र पदार्थ है।
शब्दब्रह्माद्वैतवाद की समीक्षा
___ भारतीय चिन्तकों ने शब्दब्रह्माद्वैतवाद पर सूक्ष्म रूप से चिन्तन कर उसका निराकरण किया है। प्रसिद्ध नैयायिक जयन्तभट्ट, बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित और उसके टीकाकर कमलशील, प्रमुख मीमांसक कुमारिल भट्ट की कृतियों में विशेषरूप से शब्दाद्वैतवाद का निराकरण विविध तर्कों द्वारा किया गया है । जैन दर्शन के अनेक आचार्यों ने इस सिद्धान्त में विविध दोष दिखाकर उसकी तार्किक मीमांसा की है। इनमें वि० ६वीं शती के आचार्य विद्यानन्द, वि० ११वीं शती के आचार्य अभयदेव सूरि," वि० ११-१२वीं शती के प्रखर जैनतार्किक प्रभाचन्द्र," वि. १२वीं शती के जैन नैयायिक वादिदेव सूरि और वि०१८वीं शती के जैन नव्यशैली के प्रतिपादक यशोविजय का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन सभी के आधार पर इस सिद्धान्त का निराकरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
शब्द-ब्रह्म की सत्ता साधक प्रमाण नहीं है
शब्दाद्वैतवादियों ने शब्दब्रह्म का जो स्वरूप प्रतिपादित किया है, वह तर्क की कसौटी पर सिद्ध नहीं होता। क्योंकि, शब्दाद्वैत
१. प्रभाचन्द्र : न्यायकुमुदचन्द्र, १/५, पृ० १८९ २. वही ३. वही, पृ० १४१-१४२ ४. वही, पृ० १४० प्रभाचन्द्र : प्र०क० मा०, १/३, पृ० ३६ ५. 'शब्दसम्पर्कपरित्यागे हि प्रत्ययानां प्रकाशरूपताया एवाभावप्रसक्ति: ।', स्याद्वादरत्नाकर, १७, १०८८-८९ ६. न्यायमञ्जरी, पृ० ५३१ ७. तत्वसंग्रह, कारिका १२६-१५२, पृ०८६-६६ ८. मीमांसाश्लोकवार्तिक, प्रत्यक्ष सूत्र, श्लोक १७६ है. तत्वार्थश्लोकवातिक, अध्याय १. तृतीय आह्निक, सुत्र २०, ५०२४०-२४१, श्लोक ८४-१०३ १०. सन्मतितर्कप्रकरणटीका, पृ० ३८४-३८६ ११. (क) न्यायकुमुदचन्द्र, १/५, १० १४२-१४७
(ख) प्रमेयकमलमार्तण्ड, १/३, पृ० ३६-४६ १२. स्याद्वादरलाकर, १/७, पृ०६२-१०२ १३. शास्त्रवार्तासमुच्चयटोका
जैन दर्शन मीमांसा
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