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________________ हैं किन्तु सब तो यथार्थ नहीं हो सकते क्योंकि उनमें परस्पर विरोध स्पष्ट है (प्रमाणवार्तिकभाष्य, पटना, १९४३, पृ० ३२८) । इस समस्या का समाधान भी जैन और बौद्ध परम्परा में लगभग समान शब्दों में मिलता है। प्रमाणवार्तिकभाष्य के उपर्युक्त प्रसंग में ही प्रज्ञाकर कहते हैं कि जो योगिप्रत्यक्ष प्रमाण संवादी हो वह यथार्थ है, शेष (जो प्रमाणविरुद्ध हो) अयथार्थ समझना चाहिए। इसी प्रकार समन्तभद्र रत्नकरण्ड में उस शास्त्र को यथार्थ कहते हैं जो दृष्ट और इष्ट का अबिरोधी हो। जैन परम्परा में मनःपर्यय और केवल में अयथार्थता की सम्भावना नहीं मानी गई किन्तु अवधिज्ञान में यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार सम्भव माने हैं। जिस प्रकार आंख आदि इन्द्रियों के दोष से इन्द्रियप्रत्यक्ष में गलती होना सम्भव है उसी प्रकार योगिप्रत्यक्ष में भी पूर्वोपदेश की त्रुटियों के कारण कुछ अयथार्थ अंश आ जाना संभव है। पूर्वोपदेश का योगिप्रत्यक्ष से आधारभूत सम्बन्ध है यह ऊपर दिखा चुके हैं। यहां पुनः हम वैज्ञानिक प्रक्रिया का निर्देश करना चाहेंगे। विज्ञान के अध्ययन में परम्परा से प्राप्त तथ्यों और सिद्धान्तों का निरन्तर परीक्षण और संशोधन चलता रहता है । इसी प्रकार हम जिसे योगिज्ञान कहते हैं उससे प्राप्त सामग्री का भी निरन्तर नवीन उपलब्ध होने वाली सामग्री के प्रकाश में परीक्षण और संशोधन करते रहना चाहिए। यथार्थ-ज्ञान की साधना में यह गतिशीलता आज के युग की विशेष आवश्यकता है। नैयायिकों की दृष्टि में अलौकिक सन्निकर्षज्ञान ‘योगज' कहलाता है। सूक्ष्म (परमाणु आदि), व्यवहित (दीवाल आदि के द्वारा व्यवधान वाली) तथा विप्रकृष्ट काल तथा देश (उभयरूप) से दूरस्थ वस्तुओं का ग्रहण लोकप्रत्यक्ष के द्वारा कथमपि सिद्ध नहीं हो सकता, परन्तु ऐसी वस्तुओं का अनुभव अवश्य होता है। अतः इनके लिए ध्यान की सहायता अपेक्षित है। इसे योगजसन्निकर्षजन्य कहते हैं । योगियों का प्रत्यक्ष इसी कोटि का है। योगाभ्यासजनितो धर्मविशेषः । स चादृष्टविशेषः । अयं चालौकिके योगिप्रत्यक्षे कारणीभूतः अलौकिकसन्निकर्षविशेषः ।, भाषापरिच्छेद, श्लो०६६ योगियों के प्रत्यक्ष-ज्ञान के विषय में भर्तृहरि का महत्वपूर्ण कथन है कि जिन व्यक्तियों ने भीतर प्रकाश का दर्शन किया है तथा जिनका चित्त किसी प्रकार व्याघातों से अशान्त नहीं होता; उन्हें भूत तथा भविष्य काल का ज्ञान सद्यः हो जाता है और यह ज्ञान वर्तमानकालिक प्रत्यक्ष से कथमपि भिन्न नहीं होता अनुभूत-प्रकाशानामनुपदुतचेतसाम् । अतीतानागतज्ञानप्रत्यक्षान्न विशिष्यते ॥, वाक्यपदीय, १/३७ -सम्पादक ११४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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