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शब्दाद्वैतवाद : जैन दष्टि
डॉ० लालचन्द जैन
शब्दाद्वैत भारतीय-दर्शन का महत्वपूर्ण अद्वैत-सिद्धान्त है। इसके पोषक व्याकरणाचार्य ‘भर्त हरि' हैं। वैयाकरणों के दार्शनिक सिद्धान्त शैव-सिद्धान्त के अन्तर्गत आते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि शैव दार्शनिकों का एक सम्प्रदाय व्याकरण-दर्शन का अनुयायी है, जिसका प्रमुख सिद्धान्त शब्दाद्वैत है। इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन छठी शती के विद्वान् भर्त हरि के 'वाक्यपदीय' नामक ग्रन्थ में उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भारतीय दार्शनिक-ग्रन्थों में भी इसका पूर्वपक्ष के रूप में उल्लेख किया गया है।
ब्रह्माद्वैतवाद की तरह शब्दाद्वैतवाद में भी बाह्य पदार्थों की वास्तविक सत्ता मान्य नहीं है। शब्दाद्वैतवाद का अर्थ है --ऐसा सिद्धान्त जो यह मानता हो कि शब्द ही परमतत्व एवं सत्य है। यह दृश्यमान् समस्त जगत् इसी का विवर्तमात्र है। इसी परमतत्व रूप शब्द को उन्होंने ब्रह्म कहा । अतः इनका सिद्धान्त शब्दब्रह्माद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है।
वाक के भेद एवं स्वरूप
भर्त हरि ने अपने सिद्धान्तों का विवेचन करते हुए वाक् के तीन भेद बतलाये हैं-वैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती। विद्यानन्द के अनुसार नागेश आदि नव्य-वैयाकरणों ने वाक् के चार प्रकार माने हैं-वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा। भर्त हरि ने पश्यन्ती का वही स्वरूप बतलाया है, जो नव्य-वैयाकरणों ने सूक्ष्मा का बतलाया है। इन भेदों का स्वरूप भी शब्दाद्वैतवादियों ने प्रतिपादित किया है।'
वैखरी- मनुष्य, जानवर आदि बोलने वाले के कंठ, तालु आदि स्थानों में प्राणवायु के फैलने से ककारादि वर्गों को व्यक्त करने वाली स्थूल वाणी वैख रीवाक् कहलाती है। इस कथन से स्पष्ट है कि वैखरी का सम्बन्ध हर प्रकार की व्यक्त ध्वनियों के साथ है।
१. (क) भट्टजयन्त : न्यायमञ्जरी, पृ०५३२
(ख) कमलशील : तत्वसंग्रहपञ्जिका, ५, कारिका १२८, १० ८५-८६ (ग) स्वामी विद्यानन्द : तत्त्वार्थश्लोकवातिक, अध्याय १, तृतीय आह्निक, सूव २०, पृ० २४० (घ) अभयदेव सूरि : सन्मतितकप्रकरणटीका, तृतीय विभाग, गा०६, पृ० ३७६-३८० (ङ) आ० प्रभाचन्द्र : न्यायकुमुदचन्द्र, १५, पृ० १३६-१४२ (च) वही : प्रमेयकमलभात्तण्ड, १/३, पृ० ३६ (छ) वादिदेव सूरि : स्याद्वादरत्नाकर, १७, १०८८-६८ (ज) यशोविजय : शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका, पृ०३८० २. 'वैखर्या मध्यमायाश्च पश्यन्त्याश्चंतद्भतम् । __ अनेकतीर्थभदायास्त्रय्या वाचः परं पदम ॥', भर्तहरि : वाक्य दीय, १/१४४ ३. 'चतुर्विधा हि वाग्वैखरी-मध्यमा-पश्यन्ती-सूक्ष्माचेति ।', विद्यानन्द : श्लोकवातिक, अध्याय १, आ०३, १०२४० . ___ और भी देखें-उपाध्याय, बलदेव : भारतीयदर्शन, पृ. ६४६ ४. 'वैखरी-शब्दनिष्पत्ती मध्यमाथु तिगोचरा ।
द्योतितार्था च पश्यन्ती-सूक्ष्मा-वागनपायिनी।।', कुमारसम्भवटीका, उद्धृत प्र० क मा०, पृ० ४२ ५. 'स्थानेषु विवृते वायौ कृतवर्णपरिग्रहा।
वैखरी-वाक्-प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना ॥'
जैन दर्शन मीमांसा
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