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________________ प्रामाण्य कहलाता है। प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य, उसकी उत्पत्ति पर से होती है। ज्ञप्ति की अभ्यास दशा में स्वत: और अनभ्यास दशा में परत: होती है । जिन स्थानों का हमें परिचय है उन जलाशयादि में होने वाला ज्ञान अपने आप अपनी प्रमाणता और अप्रमाणता को सूचित करता है। इसके विपरीत अपरिचित स्थानों में होने वाले जलज्ञान की प्रमाणता का ज्ञान 'पनहारियों का पानी भरकर लाना, मेंढकों का शब्द करना अथवा कमल की गंध आना, आदि जल के अविनाभावी स्वतःप्रमाणभूत ज्ञानों से ही होता है।' यद्यपि मीमांसा दर्शन का प्रमाण की उत्पत्ति के विषय में यह अभिप्राय है कि जिन कारणों से ज्ञान उत्पन्न होता है उससे अतिरिक्त किसी अन्य कारण की प्रमाणता की उत्पत्ति में अपेक्षा नहीं होती। पर उनका यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि कोई भी सामान्य अपने विशेषों में ही प्राप्त हो सकता है। दोषवान् कारणों से उत्पन्न होने के कारण अप्रामाण्य परत: मानने की तरह आपको गुणवान् कारणों से उत्पन्न होने के कारण प्रामाण्य को भी परतः मानना चाहिए । प्रामाण्य हो अथवा अप्रामाण्य, उनकी उत्पत्ति परतः ही होगी। सर्वदर्शनसंग्रह में कहा गया है कि सांख्य प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को स्वतः तथा बौद्ध अप्रामाण्य को स्वतः और प्रामाण्य को परतः मानता है । पर उनके मूल ग्रन्थों में इन पक्षों का उल्लेख नहीं मिलता है। आचार्य शांतरक्षित ने बौद्धों का पक्ष अनियमवाद के रूप में रखा है अर्थात् जो प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को अवस्था विशेष में स्वतः और अवस्था विशेष में परत: मानने का है, सांख्य दर्शन में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। नैयायिक दोनों को परतः मानते हैं । वे कहते हैं कि वेद की प्रमाणता ईश्वरकर्तृक होने से परतः है, पर उनका यह ऐकांतिक दृष्टिकोण ठीक नहीं है। प्रमाणता या अप्रमाणता सर्वप्रथम तो परत: ही गृहीत होती है। गुण और दोष-दोनों ही वस्तु के धर्म हैं। यदि काच कामलादि दोष हैं तो निर्मलता चक्षु का गुण है । अत: गुण और दोष रूप कारणों से उत्पन्न होने के कारण प्रमाणता और अप्रमाणतादोनों ही परतः माननी चाहिए। ज्ञप्ति के विषय में पहले कहा जा चुका है कि वे अभ्यास दशा में स्वत: और अनभ्यास दशा में परत: होती है। यद्यपि दर्शनशास्त्रों में प्रामाण्य और अप्रामाण्य के स्वतः-परतः की चर्चा बहुत प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसा मालूम होता है कि इस चर्चा का उद्गम मूल वेदों को मानने तथा न मानने वालों के पक्ष में हुआ। प्रारम्भ में यह चर्चा शब्दप्रमाण तक ही सीमित रही। फिर वह तार्किक प्रदेश में आने पर व्यापक बन गई और सर्वज्ञान के विषय में प्रामाण्य किंवा अप्रामाण्य के स्वतः-परतः का विचार प्रारंभ हो गया। यद्यपि बौद्ध ज्ञान की उत्पत्ति में समनन्तर आदि चार प्रत्यय मानते हैं । १२ सौत्रान्तिक बौद्धों का यह सिद्धांत है कि जो ज्ञान का कारण नहीं होता, वह ज्ञान का विषय नहीं हो सकता। नैयायिक तथा वैशेषिक इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से ज्ञान की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं । ५ अतः उनके मत से भी सन्निकर्ष के घटक रूप में पदार्थ ज्ञान का कारण हो जाता है।६ १. न्यायदीपिका २. 'तदुभयमुत्पत्तौ परत एव ज्ञप्तौ तु स्वत: परतश्चेति', प्रमाणनय०, १/२१ ३. प्रमेयरत्नमाला, १/१३ ४. 'स्वत: सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तुमन्येन शक्यते ॥', श्लोकवा०, २/४७ ५. प्रमेयकमलमार्तण्ड, प०३८ ६. 'प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वत: सांख्याः समाश्रिताः', सर्वद०, पृ० २७६ ७. 'सौगताश्चरम स्वतः', सर्वद०, पृ०२७९ ८. 'बहि बौद्ध रेषां चतुर्णामेकतमोऽपिपक्षोऽभीष्टोनियमपक्षस्येष्टत्वात् । तथाहि-उभयमप्येतत् किचित् स्वतः किंचित् परत: इति पूर्वमुपवणितम् । अतएव पक्षच तुष्टयोपन्यासोऽस्ययुक्त: । पंचमस्याऽनियमपक्षस्य संचयात।', तत्वसंग्रह प०, का० ३१२३ ६. प्रमायाः परतंत्रत्वात्, न्यायकुसुमांजलि, २/१ १०. 'प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतः वा', प्रमाणमीमांसा, १/८ तथाहि विज्ञानस्य तावत्प्रामाण्यं स्वतो वा निश्चीयते परतो वा',-तात्पर्य, १/१/१ ११. 'औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थे न संबंधस्तस्य ज्ञानमुपदेशोऽव्यति रेकाश्चार्थेऽनुपलब्धे तत्प्रमाणं बादरायणस्यानपेक्षत्वात', जैमि०, सूत्र १-१-४ 'सर्व विज्ञानविषयमिदं तावत्प्रतीयताम् । प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वत: कि परतोऽथवा', श्लोकवा०, चोद०, श्लोक ३३ १२. 'तस्मात् तत्प्रमाणम् अनपेक्षत्वात् । न ह येवं सति प्रत्ययान्तरमपेक्षितव्यम् पुरुषान्तरं वापि, स्वयं प्रत्ययो ह्यसौ', शाबर भा०, १/१/५; बृहती, १/१/५ १३. 'चत्वारः प्रत्यया हेतुश्चालम्बनमनन्तरम् । तथैवाधिपतेयं च प्रत्ययो नास्ति पंचम।', माध्यमिककारिका, १/२ १४. 'नाकारण विषयः', बोधिचर्या०, पृ०३९८ १५. न्यायदीपिका, पृ०१ १६. 'तत: सुभाषितम्-इन्द्रियमनसि कारणं विज्ञानस्य अर्थो विषयः', लघीयस्त्रय स्व०, श्लोक ५४ जैन दर्शन मीमांसा १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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