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________________ आचार्य हेमचंद्र ने पुराने आचार्यों द्वारा मानित स्व, अपूर्व, अनधिगत आदि सबको न रखकर सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् कहा है। आचार्य विद्यानंद ने अभ्यास के स्थान में व्यवसाय अथवा निर्णीति पद रखकर विशेष अर्थ समाविष्ट किया है। यह समंतभद्र के लक्षण का शब्दान्तर मात्र मालूम होता है। एक ही प्रमेय में अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति को प्रमाणसंप्लव कहते हैं । बौद्धों का कहना है कि जिस विवक्षित पदार्थ से कोई एक प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह पदार्थ दूसरे क्षण में नियमतः नष्ट हो जाता है, अत: किसी भी अर्थ में हो, ज्ञान की प्रवृत्ति का अवसर ही नहीं है। पर उनका यह कहना यथोचित नहीं है। पदार्थ एकांत रूप से क्षणिक नहीं हो सकता है। उसे कथंचित् नित्य और सामान्य-विशेषात्मक कहा जाता है । यही प्रमाण का विषय होता है । पदार्थ अनंतधर्मात्मक होता है। वस्तु के कतिपय अंशों के निश्चित होने पर अगहीत अंशों को जानने के लिए प्रमाणांतर को अवकाश ही रहता है । अत: अनिश्चित अंश के निश्चय में अथवा निश्चितांश में उपयोग विशेष हो जाने पर ही प्रमाणसंप्लव माना जाता है। नैयायिक का कहना है कि यदि इन्द्रियादि कारण कलाप मिलते हैं तो प्रमाण की प्रवृत्ति अवश्य ही होगी। उन्होंने प्रत्येक अवस्था में प्रमाणसंप्लव स्वीकृत किया है। जैन दर्शन में अवग्रह-ईहा-अवाय-धारणा ज्ञानों के ध्रुव और अध्र व भेद भी किये गये। नित्यानित्य पदार्थ में सजातीय या विजातीय प्रमाणों की प्रवृत्ति और संवाद के आधार पर उनकी प्रमाणता को स्वीकार करते ही हैं। विशेष परिच्छेद के अभाव में भी यदि संवाद है तो भी प्रमाणता अवश्य ही होगी। यद्यपि कतिपय स्थलों पर गृहीतग्राही ज्ञान को प्रमाणाभास में अंतर्भूत किया है। प्रमाण के लक्षण में दिगम्बर आचार्यों ने अपूर्वार्थ पद या अनधिगत विशेषण दिया है, इस कारण इसे प्रमाणाभास में रखा है। वास्तव में प्रमाण का लक्षण सम्यगर्थ का निर्णय करना है, अपूर्वार्थग्राहित्व नहीं। पदार्थ के नित्यानित्य होने के कारण उसमें अनेक प्रमाणों की प्रवृत्ति होने में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं होती। प्रमाण का प्रामाण्य प्रमाण सत्य होता है, इसमें कोई द्वैध नहीं, फिर भी सत्य की कसौटी सबकी एक नहीं है। ज्ञान की सत्यता या प्रामाण्य के नियामक तत्त्व भिन्न-भिन्न माने जाते हैं। जैन दृष्टि के अनुसार बह याथार्थ्य है। याथार्थ्य का अर्थ है-ज्ञान की तथ्य के साथ संगति। आचार्य विद्यानंद अबाधित तत्व, बाधक प्रमाण के अभाव या कथनों के पारस्परिक सामञ्जस्य को प्रामाण्य का नियामक मानते हैं। ज्ञान तब तक सत्य नहीं होता, जब तक वह फलदायक परिणामों द्वारा प्रामाणिक नहीं बन सकता । यह भी सार्वदिक सत्य नहीं है । इसके बिना भी तथ्य के साथ ज्ञान की संगति होती है। क्वचित् 'यह सत्य की कसौटी बनता है' इसलिए यह अमान्य भी नहीं है। प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परतः होती है। ज्ञानोत्पादक सामग्री में मिलने वाले गुण और दोष क्रमशः प्रामाण्य और अप्रामाण्य के निमित्त बनते हैं । अर्थ का परिच्छेद प्रमाण और अप्रमाण दोनों में होता है । किन्तु अप्रमाण (संशय-विपर्यय) में अर्थ-परिच्छेद यथार्थ नहीं होता और प्रमाण में वह यथार्थ होता है। विषय की परिचित दशा में ज्ञान की स्वतः प्रामाणिकता होती है, विषय की अपरिचित दशा में प्रामाण्य का निश्चय परतः होता है। अस्तु, प्रामाण्य का निश्चय स्वतः और परतः होता है, यह विभाग विषय (ग्राह्य वस्तु) की अपेक्षा से है।" ज्ञान के स्वरूप ग्रहण की अपेक्षा उसका प्रामाण्य निश्चय अपने आप होता है। __ अस्तु, प्रमाण जिस पदार्थ को जिस रूप में जानता है, उसका उसी रूप में प्राप्त होना अर्थात् प्रतिभास विषय का अव्यभिचारी होना १. 'तस्मादनुपचरितविसवादित्वं प्रमाणस्य लक्षणमिच्छता निर्णयः प्रमाणमेष्टव्य इति ।', प्रमाणमीमांसा, १८ २. 'प्रमाणस्य विषयो द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु', प्रमाणमीमांसा, १/३० ३. 'उपयोगविशेषाभावे प्रमाणसंप्लवस्यानभ्युपगमात् ।', अष्टसहस्री, पृ०४ ४. 'ग्रहीष्यमाणग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम् ।', प्रमाणमीमांसा, १/४ ५. जैनसिद्धांतदीपिका, पृ०६ ६. तत्त्वार्थश्लोकवातिक, पृ० १७५ ७. 'प्रमेयं नान्यथा गृह्णातीति यथार्थत्वमस्य ।', भिक्षुन्यायकणिका, १/११ ८. तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकार, पृ० १७५ ६.प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, १/२० १०. 'अयञ्च विभाग: विषयापेक्षया, स्वरूपे तु सर्वत्र स्वत एव प्रामाण्य निश्चयः', ज्ञानबिन्दु ११. 'तत्प्रामाण्यं स्वत: परतश्च', परीक्षामुख, प्र०१ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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