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मिथ्यादर्शन, अज्ञान ये सभी शब्द समानार्थक हैं ।
आचार- -आलोच्य अभिलेखों में आचार संज्ञा का उल्लेख प्राप्त होता है ।' जैन परम्परा में आचार और विचार को समान स्थान दिया गया है । अहिंसामूलक आचार एवं अनेकान्तमूलक विचार का प्रतिपादन जैन विचारधारा की विशेषता रही है। उपर्युक्त अभिलेखों में पचाचार ( भ्रमणाचार) ' और आवकाचार (एकादशाचार) का उल्लेख हुआ है।
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क्योंकि वह हिमादि का पूर्णतः स्थागी होता है। श्रावक के व्रत अणुव्रत अर्थात् छोटे व्रत कहलाते
श्रमणाचार (पञ्चाचार ) धमण के व्रत महाव्रत अर्थात बड़े व्रत कहलाते हैं -श्रमण बड़े श्रावक, उपासक, देशविरत, सागार, श्राद्ध, देशसंयत आदि शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं। हैं क्योंकि वह हिंसादि का अंशतः त्याग करता है । सर्वविरति अर्थात् सर्वत्याग रूप महाव्रत पांच हैं- (१) सर्वप्राणातिपात विरमण (२) सर्वमृषावाद - विरमण ( ३ ) सर्वअदत्तादान - विरमण ( ४ ) सर्वमैथुन - विरमण (५) सर्वपरिग्रह - विरमण । इन पांच महाव्रतों को ही श्रवणबेलगोला के आलोच्य अभिलेखों में पञ्चाचार कहा गया है। प्राणातिपात अर्थात् हिंसा का सर्वतः विरमण यानि पूर्णत: त्याम सर्वप्राणातिपात विरमण कहलाता है। इसी प्रकार मृदावाद अर्थात् झूठ, अदत्तादान अर्थात् चोरी, मैथुन अर्थात् कामभोग और परिग्रह अर्थात् संग्रह अथवा आसक्ति का पूर्णतः त्याग क्रमशः सर्वमृषावाद - विरमण, सर्वअदत्तादान - विरमण, सर्वमैथुन - विरमण और सर्वपरिग्रह - विरमण कहलाता है ।
श्रावकाचार – जैन आचारशास्त्र में व्रतधारी-गृहस्थ श्रावक, उपासक, अणुव्रती, देशविरत, सागार आदि नामों से जाना जाता है। चूंकि वह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों अर्थात् श्रमणों से निर्ग्रन्थ-प्रवचन का श्रवण करता है । अतः उसे श्राद्ध अथवा श्रावक कहते हैं। श्रमण वर्ग की उपासना करने के कारण वह श्रमणोपासक अथवा उपासक कहलाता है। अणुव्रतरूप एकदेशीय अर्थात् अपूर्ण संयम अथवा विरति धारण करने के कारण उसे अणुव्रती, देशविरत, देशसंयमी अथवा देशसंयत कहा जाता है। चूंकि वह आगार अर्थात् घरवाला है—उसने गृहत्याग नहीं किया है । अत: उसे सागार, आगारी, गृहस्थ, गृही आदि नामों से पुकारा जाता है। श्रावकाचार से सम्बन्धित ग्रन्थों अथवा प्रकरणों में उपासक धर्म का प्रतिपादन तीन प्रकार से किया गया है– (१) बारह व्रतों के आधार पर (२) ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर (३) पक्ष, चर्या अथवा निष्ठा एवं साधन के आधार पर उपासकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि में सल्लेखना सहित बारह व्रतों के आधार पर श्रावक धर्म का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्रप्राभृत में, स्वामी कार्तिकेय ने अनुप्रेक्षा में एवं आचार्य वसुनन्दि ने वसुनन्दि-श्रावकाचार में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावक-धर्म का प्ररूपण किया है। इन एकादश श्रावकाचारों का आलोच्य अभिलेखों में भी उल्लेख मिलता है । कुन्दकुन्द और वसुनन्दि ने श्रावकों के ग्यारह भेदों का वर्णन किया है। दार्शनिक, प्रतिक, सामयिकी श्रोषधोपवासी सचितविरत, रात्रिमुक्तविरत ब्रह्मचारी, आरम्भविरत परिग्रहविरत अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरतये श्रावकों के ग्यारह भेद होते हैं। इन ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर एकादश श्रावकाचार बतलाये गये हैं ।
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सल्लेखना -- श्रावकाचारों में से एक आचार सल्लेखना भी है। जिसका आलोच्य अभिलेखों में उल्लेख हुआ है। जीवन के अन्तिम समय में अर्थात् मृत्यु आने के समय तप विशेष की आराधना करना सल्लेखना कहलाता है । इसे शास्त्रीय परिभाषा में अपश्चिम- मारणान्तिक सल्लेखना कहते हैं । मारणान्तिक सल्लेखना का अर्थ होता है-मरणान्त के समय अपने भूतकालीन समस्त कृत्यों की सम्यक् आलोचना करके शरीर व कषायादि को कृश करने के निमित्त की जाने वाली सबसे अन्तिम तपस्या । सल्लेखनापूर्वक होने वाली मृत्यु को जैन आचारशास्त्र में समाधिमरण कहा गया है। जब शरीर भारभूत हो जाता है तब उससे मुक्ति पाना ही श्रेष्ठ होता है। ऐसी अवस्था में बिना किसी प्रकार का क्रोध किए प्रशान्त एवं प्रसन्नचित्त से आहारादि का त्याग कर आत्मिक चिन्तन करते हुए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग करना सल्लेखना व्रत का महान उद्देश्य है।
ज्ञानाचार — अपनी शक्ति के
निर्मल किए गए सम्यग्दर्शनादि में जो यत्न किया जाता है, उसे आचार कहते हैं। उपर्युक्त
१. जं०शि० सं० १०५ / २
२. वही, ११३
३. वही, १०८
४. वही, ११३
५. चरितसार, ३/३
६. वसुनन्दि-श्रावकाचार, ४
७.
ज० शि० सं०, भाग १, ले० सं० ५४, १०८ /६२
सात ७/२५
जैन दर्शन मीमांसा
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