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समभिरूढ़-व्युत्पत्ति से होने वाली शब्द की प्रवृत्ति का अभिप्राय समभिरूढ़ नय है। एबम्भूत-वर्तमानकालिक या तत्कालभावी व्युत्पत्ति से होने वाली शब्द की प्रवृत्ति का अभिप्राय एवम्भूत नय है।
प्रमाण और उसका विषय-स्याद्वाद के अन्तर्गत प्रमाण, उसका विषय (प्रमेय) तथा नय की विवेचना की जाती है। तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यग्ज्ञान को प्रमाण माना गया है। सम्यग्ज्ञान के पांच भेद होते हैं—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल। आलोच्य श्रवणवेल्गोला के अभिलेखों में इनमें से श्रुत' और केवलज्ञान' का उल्लेख हुआ है।
श्रुतज्ञान-जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार श्रुत ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुनना मात्र ‘श्रुत' कहलाता है । तत्त्वार्थ सूत्र में श्रुत ज्ञान को परोक्ष प्रमाण माना गया है। वह एक ज्ञान विशेष के अर्थ में निबद्ध है। पहले लेखनक्रिया का जन्म न होने के कारण, समूचा ज्ञान गुरुशिष्यपरम्परा से सुन-सुनकर ही प्राप्त होता था। शास्त्रों में निबद्ध होने के पश्चात् भी वह श्रुत संज्ञा से ही अभिहित होता रहा । जैनाचार्यों के अनुसार वे ही शास्त्र श्रुत कहलायेंगे, जिनमें भगवान की दिव्य ध्वनि का प्रतिनिधित्व हुआ है।
केवलज्ञान-केवल शब्द का अर्थ एक या असहाय होता है। ज्ञानावरण का विलय होने पर ज्ञान के अवान्तर भेद मिटकर ज्ञान एक हो जाता है। फिर उसे इन्द्रिय और मन के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती, इसलिए वह केवल कहलाता है। उमास्वाति ने केवलज्ञान का प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में विवेचन किया है।
जैन परम्परा में सर्वज्ञता का सिद्धान्त मान्य रहा है। केवलज्ञानी केवलज्ञान उत्पन्न होते ही लोक और अलोक दोनों को जानने लगता है।
केवलज्ञान का विषय सब द्रव्य और पर्याय है। मति को छोड़ शेष चार ज्ञान के अधिकारी केवली कहलाते हैं—श्रुतकेवली, अवधिज्ञानकेवली, मनःपर्ययज्ञानकेवली और केवलज्ञानकेवली। इनमें श्रुतकेवली और केवलज्ञानी का विषय समान है। दोनों सब द्रव्यों और सब पर्यायों को जानते हैं। इनमें केवल जानने की पद्धति का अन्तर है। श्रुतकेवली शास्त्रीयज्ञान के माध्यम से तथा क्रमश: जानता है और केवलज्ञानकेवली उन्हें साक्षात् तथा एक साथ जानता है।
आलोच्य अभिलेखों में केवलज्ञान का पर्यायवाची 'अपवर्ग' शब्द भी प्राप्त होता है। यह मूलतः न्याय दर्शन का शब्द है, न कि जैन दर्शन का। न्याय दर्शन के अनुसार अपवर्ग दुःखदायी जन्म से अत्यन्त विमुक्ति का नाम है।
पदार्थ के भेद -श्रवणवेल्गोला के अभिलेखों में प्रमाण के विषय का पदार्थ शब्द से उल्लेख किया गया है। श्रवणवेल्गोला के आलोच्य अभिलेखों में यद्यपि पदार्थ के भेदों का स्वतंत्र रूप से उल्लेख नहीं हो पाया तथापि कर्म", निरस्तकर्म, बद्धकर्म" आदि शब्दों से उनका परोक्ष रूप से उल्लेख हो जाता है ।
कर्म का अर्थ है, जो जीव को परतन्त्र करे अथवा मिथ्यादर्शन आदि रूप परिणामों से युक्त होकर जीव के द्वारा जो उपार्जन किये जाते हैं, वे कर्म हैं।
आत्मा का मूल स्वरूप अनन्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र-वीर्य रूप शक्ति का शाश्वत उज्ज्वल पिण्ड है। परन्तु इन पौद्गलिक कर्मों के कारण वह विकृत हो जाता है । कर्म के सन्दर्भ में जैनाचार्यों का कथन है कि जिस प्रकार पौद्गलिक मदिरा अमूर्तिक चेतना में विकार भाव उत्पन्न कर देती है। उसी प्रकार पौद्गलिक कर्म भी अमूर्त आत्मा को प्रभावित करते हैं । अविद्या, माया, वासना, मल, प्रकृति, कर्म, मोह,
१.०शि०सं०, ५४/३१, १०५/६, ८ २. वही, १०८/५८, १०५/७, १५ ३. 'पायं परोक्षम्, तत्त्वार्थसूत्र, १/१० ४. संपा० जुगलकिशोर : आचार्य समन्तभद्र कृत समीचीन धर्मशास्त्र, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, १९५५, १६, पृ० ४३ ५. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ८४ ६. 'प्रत्यक्षमन्यत्, तत्त्वार्थसूत्र, १/6 ७. दशवैकालिकसूत्र, ४/२२ ८. स्थानांगसूव, ३/५१३ ६.०शि० सं०, भाग १, ले० सं० ८२/४ १०. वही, १०५/१८ ११.वही, ५४/३३ १२. वही, १०५/३ १३. वही, १०८/७
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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