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________________ वह परमात्मा भी बन सकती है। इस प्रकार आत्मा से परमात्मा बनने का अद्भुत कौशल जैन-दर्शन में दर्शाया गया है। जीवों के भेद जीव दो प्रकार के हैं-संसारी और मुक्त' जिनके कर्म नष्ट हो गये हैं, जो सिद्धशिला पर विराजमग्न हैं, वे मुक्त जीव हैं । वे अपने शुद्ध-बुद्ध चैतन्य रूप में स्थित हैं । सिद्ध-स्वरूप का वर्णन करते हुए कुन्दकुन्द कहते हैं णठ्ठठ्ठकम्मबंधा अट्ठामहागुणसमण्णिया परमा। लोयग्गठिदा णिच्चा, सिद्धा जे एरिसा होंति ॥ जिन्होंने ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को नष्ट कर दिया है, जो सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व तथा अव्याबाध-इन आठ गुणों से युक्त हैं, परम अर्थात् बड़े हैं, जो लोक के अग्रभाग में स्थित हैं तथा जो नित्य-अविनाशी हैं, वे सिद्ध हैं। कर्मों के कारण जो संसार की नाना योनियों में भटक रहे हैं वे संसारी जीव हैं। संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के होते हैं। दो इन्द्रियों वाले-स्पर्श तथा रसना से युक्त, तीन इन्द्रियों वाले-स्पर्श, रसना, घ्राण से युक्त, चार इन्द्रियों वाले-स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु से युक्त तथा पांच इन्द्रियों वाले-स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण से युक्त । ये ४ प्रकार के त्रस जीव हैं । उदाहरणार्थ क्रमश: कृमि, पिपीलिका, (चींटी) भ्रमर, मनुष्य को ले सकते हैं पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी तथा असंज्ञी के भेद से दो प्रकार के हैं । जो मन सहित हैं वे संज्ञी तथा जो मन रहित हैं वे असंज्ञी हैं । देव, नारकी, मनुष्य आदि संज्ञी तथा कुछ पशु असंज्ञी हैं। जिनकी केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है वे स्थावर हैं । ये भी पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक के भेद से पांच प्रकार के हैं। जीवों के उपर्युक्त भेद एक रेखाचित्र द्वारा निम्न प्रकार दिखाये जा सकते हैं: जीव संसारी मुक्त द्वीन्द्रिय (कृमि) त्रीन्द्रिय (चींटी) चतुरिन्द्रिय (भ्रमर) पंचेन्द्रिय (मनुष्य, देव पशु) संज्ञी (देव, मनुष्य, नारकी आदि) __ कुछ तिर्यज्च भी असंज्ञी (पशु-पक्षी) पृथ्वीकायिक जलकायिक अग्निकायिक वायुकायिक वनस्पतिकायिक जीवों के कार्य के सम्बन्ध में भी जैन-दर्शन विवेचना करता है। आचार्य उमास्वामी कहते हैं—परस्परोग्रहो जीवानाम् परस्पर में सहायक होना जीवों का उपकार है। संसार की व्यवस्था एक दूसरे की सहायता के बिना नहीं चल सकती। परस्पर में उपकार करना जीवों का कार्य १. संसारिणो मुक्ताश्च', तत्वार्थ सूत्र, २/१० २. कुन्दकुन्द : नियमसार, सूरत, वी. नि. सं. २४६२, गाथा ७२ ३. 'सम्यग्दर्शन ज्ञान, अगुरूलघु अवगाहना । सूक्ष्म वीरजवान, निरावाघगुण सिद्धके ॥', चौथा भाग ४. 'कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेककवृद्धानि', तत्वार्थसूत्र, २/२२ ५. 'संजिनः समनस्काः ,' वही, २/२४ ६. तत्वार्थसूत्र, ५/२२ जैन दर्शन मीमांसा ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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