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श्रुतज्ञान है । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना 'रूपी' पदार्थों का जो ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना दूसरे के भावों का जो ज्ञान होता है वह मन:पर्यय ज्ञान है। श्वेताम्बर परम्परानुसार दूसरे को मन की पर्यायों का ज्ञान तथा परम्परया पदार्थों का ज्ञान मन:पर्यय द्वारा होता है । अन्त में त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों का युगपत ज्ञान केवल ज्ञान है । मिथ्या मतिज्ञान कुमति, मिथ्याश्रुत ज्ञान कुश्रुत, और मिथ्या अवधिज्ञान विभंगावधि है, दर्शनोपयोग भी स्वभाव और विभाव के भेद से दो प्रकार का है । केवलदर्शन स्वभाव दर्शनोपयोग है। केवल ज्ञान के साथ जो दर्शन होता है वह केवल दर्शन है। विभाव दर्शनोपयोग तीन प्रकार का है चक्षुरिन्द्रिय से जो दर्शन होता है वह क्षुदर्शन है। चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रिय से होने वाला दर्शन दर्शन है तथा अवधिज्ञान से पूर्व होने वाला दर्शन अवधिदर्शन है।' उपयोग के इन भेदों को रेखाचित्र द्वारा निम्न प्रकार से दिखाया जा सकता है
उपयोग
T
ज्ञान
स्वभाव ( सम्यक् )
मति
श्रुत
मन:पर्यय अवधि
केवल
विभाव
I
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| कुमति
स्वभाव
I
केवलदर्शनरूप
|
दर्शन
अचदर्शन
प्रकारान्तर से जीव का स्पष्ट और सुगम लक्षण नेमिचन्द्र कृत द्रव्यसंग्रह में प्राप्त होता है
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिणामो ।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥' गाथा २
१. कुन्दकुन्द नियमसार, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत, वी. नि. सं. २४६२ गाथा १४
५४
कुश्रुत
विभंगावध
अर्थात् जीव उपयोग स्वरूप है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेहपरिणाम है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है। जीव के उपयोग के सम्बन्ध में ऊपर विस्तृत चर्चा की जा चुकी है। मूर्तिक का अर्थ है - जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों पाये जायें। चूंकि जीन में ये नहीं पाये जाते हैं, अतः जीव अमूर्तिक है। ज्ञानावरणादिक कर्मों को करने वाला होने से कर्ता है। प्रदेशों में संकोच और विस्तरणशील होने से स्वदेहपरिणाम है। अर्थात् जीव अपनी देह के अनुसार छोटे-बड़े स्वरूप (परिणाम) वाला है। सांसारिक पुद्गल कर्म सुख-दुःख आदि का भोगने वाला होने से भोक्ता है। अनेक संसारी भेदों वाला होने से या संसार में भ्रमण करने के कारण संसारी है। ज्ञानाबरणी दर्शनावरणी, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय उन आठ कर्मों से रहित होकर ऊर्ध्वगमन करने वाला होने से - गामी कर्ता और सिद्ध है। अर्थात् जीव का अन्तिम सोपान मोक्ष है ।
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन में जीव जहां कर्त्ता है वहां भोक्ता भी है। जैसे अच्छे-बुरे कर्म उसने किये हैं उसका वह वैसा फल अवश्य प्राप्त करेगा। वह अपने संस्कारों की सरणि में बंधा हुआ है। अपने पुरुषार्थ से वह संसार में बंधा भी रह सकता है और मुक्त भी हो सकता है। जीव संसारी भी है और मुफ्त सिद्ध भी है अर्थात् जो संसारी है यह मुक्त भी हो सकता है जो सामान्य आत्मा है
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दर्शन
T
विभाव
अवधिदर्शन
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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