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है। पति सुख-सुविधा की व्यवस्था कर और अपने जीवन की सच्ची संगिनी बनाकर पत्नी का उपकार करता है और पत्नी अनुकूल प्रवर्तन द्वारा पति का उपकार करती है।'
जीव संख्या में अनन्त, असंख्यात प्रदेशों वाले तथा समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। जीव अपने वास्तविक रूप में स्वयम्भू, सर्वज्ञ, ज्ञायक, सर्वगत है, किन्तु कर्मों के संयोग से भव-भ्रमण करता है। ज्यों ही कर्मों का संयोग छूट जाता है, त्यों ही जीव का भव-भ्रमण समाप्त हो जाता है, और वह अपने वास्तविक रूप में आकर अनन्त-दर्शन, अनन्त-ज्ञान, अनन्त-सुख और अनन्त-वीर्य का अधिकारी होकर सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है।
पुद्गल
__ जैन-दर्शन में पुद्गल द्रव्य मूर्तिक स्वीकार किया गया है। पुद्गल की व्युत्पत्ति बताते हुए बताया गया—पूरयन्ति गलन्तीति पुद्गलाः' अर्थात् जो द्रव्य (स्कन्ध अवस्था में) अन्य परमाणुओं से मिलता (/पृ०+णिच् ) है और गलन (/गल्) =पृथक्-पृथक् होता है, उसे पुद्गल कहते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
वण्णरसगंधफासा विज्जते पोग्गलस्स सुहमादो।
पुढवीपरियंतस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो॥ अर्थात् पुद्गल द्रव्य में ५ रूप, ५ रस, २ गन्ध, और ८ स्पर्श ये चार प्रकार के गुण होते हैं तथा शब्द भी पुद्गल का पर्याय है। ५ रूप हैं नीला, पीला, सफेद, काला, लाल । ५ रस हैं—तीखा, कटुक, आम्ल, मधुर और कसैला । दो गन्ध हैं-सुगन्ध तथा दुर्गन्ध और ८ स्पर्श हैं.-.-कोमल, कठोर, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध तथा रूक्ष । इनमें से प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद कहे गये हैं। एक रेखाचित्र द्वारा इन्हें इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है
पुद्गल के गुण
वर्ण
शाका
रस
गन्ध
नीला पीत
शुभ्र
काला
लाल मधुर आम्ल
कटु
कषाय
तिक्त
सुगन्ध
दुर्गन्ध
कोमल कठोर
गुरु लघु शीत ऊष्ण स्निग्ध रुक्ष
संख्यात, असंख्यात, अनन्त बीसों उपभेदों के ये तीन-तीन भेद होते हैं।
पुदगल के भेद-पुद्गल दो प्रकार का है—एक अणुरूप, दूसरा स्कन्धरूप। आगे स्कन्ध के तीन रूप होकर पुद्गल के चार भेद भी स्वीकार किये गये हैं--(१) स्कन्ध (२) स्कन्ध देश (३) स्कन्ध प्रदेश (४) परमाणु । अनन्तानन्त परमाणुओं का पिण्ड स्कन्ध कहलाता है, उस स्कन्ध का अर्धभाग स्कन्ध देश और उसका भी अर्धभाग अर्थात् स्कन्ध का चौथाई भाग स्कन्ध प्रदेश कहा जाता है तथा जिसका दूसरा भाग नहीं होता उसे परमाणु कहते हैं ।
स्कन्ध दो प्रकार के हैं--बादर तथा सूक्ष्म । बादर स्थूल का पर्यायवाची है। स्थूल अर्थात् जो नेत्रेन्द्रिय-ग्राह्य हो और सूक्ष्म अर्थात जो इन्द्रिय-ग्राह्य न हो। इन दोनों को मिलाकर स्कन्ध के छ: वर्ग स्वीकार किये गये हैं
१. वही, पं० फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री कृत व्याख्या, पाठ २२४ २. माध्वाचार्य : सर्वदर्शनसंग्रह, चौखम्भा विद्या भवन, १९६४, पृ० १५३ ३. कुन्दकुन्द : प्रवचनसार, श्रीमद् राजचन्द्र-आश्रम, अगास, वि. सं. २०२१, गाथा २/४०, 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः' तत्वार्थ सूत्र, ५/२३ ४. 'अणवः स्कन्धाश्च', तत्वार्थ सूत्र, ५/२५ ५. पञ्चास्तिकाय, गाथा ७५
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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