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________________ १. स्यात् अस्ति २. स्यात् नास्ति ३. स्यात् अस्ति नास्ति ४. स्यात् अवक्तव्य ५. स्यात् अस्ति अवक्तव्य ६. स्यात् नास्ति अबक्तव्य ७. स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य वस्तु में अनेकत्व वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, अनेक पर्यायों का आधार है। अनेक का तात्पर्य वस्तु में सन्निहित विवक्षित तथा अविवक्षित दो विरोधी धर्मों से है। वस्तु में दो विरोधी धर्म किसी खास विवक्षा से ही रह सकते हैं। नित्य का विरोधी अनित्य, एक का विरोधी अनेक, भेद का विरोधी अभेद आदि है । वस्तु नित्य है यह द्रव्य-दृष्टि है, वस्तु अनित्य है यह पदार्थ-दृष्टि है । जब आभूषण को कंगन कहते हैं तब कंगन वस्तु की पर्यायदृष्टि से कहा गया इसलिए अनित्य है, क्योंकि कभी गलवा कर अंगूठी आदि बनवाई जा सकती है। अतः इसकी पर्याय नष्ट हो सकती है। जव यह कहते हैं कि कंगन सोने का है तब यह द्रव्य-दृष्टि है क्योंकि सोना नित्य है; गलाने पर भी सोना ही रहेगा। ‘स्यात्' शब्द वस्तु के अस्तित्व गुण को प्रधानता से बताता है। इसके द्वारा अनेकान्त और सम्यक्-एकान्त का बोध होता है । एक ही दृष्टि से वस्तु दोनों नहीं हो सकतीं। वस्तु के अनन्त धर्मों का बोध न होने के कारण एकान्तवादी स्याद्वाद को नहीं समझ सके । वाणी के द्वारा एकसाथ सत्य का पूर्ण कथन नहीं हो सकता। जिस धर्म का वर्णन किया जाता है वह मुख्य तथा अन्य गौण बन जाते हैं। एकान्तदृष्टि से अन्य गौण धर्म वस्तु से पृथक् माने जाते हैं। इस प्रकार एकान्त दृष्टि से वस्तु का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है। यह निश्चित है कि संसार विरोधी तत्त्वों से पूर्ण है। उदाहरणार्थ संखिया प्राणघातक पदार्थ माना गया है किन्तु वैद्यक प्रक्रिया द्वारा यह प्राणरक्षक बन जाता है । यदि संखिया को अनुपात में न खाया जाए तो वह प्राणघातक बन जाता है। किन्तु वैद्य के परामर्श के अनुसार यथाविधि सेवन करने पर प्राणरक्षक होता है । स्पष्ट है कि संखिया पदार्थ में एक ही नहीं दोनों दृष्टियां सन्निहित हैं । इस प्रकार वस्तु के स्वरूप के विषय में समन्वयकारी परस्पर मैत्री रखने वाली दृष्टि से वस्तु का सत्स्वरूप हृदयग्राही होता है । स्याद्वाद भगवान् ऋषभदेव की देन स्याद्वाद नया नहीं है । भगवान् ऋषभदेव ने ही इसका प्रतिपादन कर दिया था। भगवान् महावीर के समय तक संदर्भ बदल गए। जनसाधारण को समझाने का नया आयोजन भगवान् महावीर ने किया था। आज भी लोग स्याद्वाद को नहीं समझ पाते । स्याद्वाद में व्यवहृत 'स्यात' को अरबी भाषा के 'शायद' शब्द का पर्यायवाची मानते हैं। जिसके आधार पर उन्होंने स्याद्वाद को संशयवाद का पर्याय मान लिया। यह भ्रामक है । ऐसे लोग इस शब्द के वास्तविक अर्थ से अपरिचित हैं। शंकराचार्य जैसे विद्वान् भी स्याद्वाद के अर्थ को न समझ पाए । यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि जो नित्य है वह अनित्य भी है, जो एक है वह अनेक भी है, जो वाच्य है वह अवाच्य भी है, कैसे ? किन्तु स्याद्वाद इन विपक्षी तत्वों का निराकरण नहीं करता बल्कि समर्थन करता है । यही स्याद्वाद की विशेषता है। विभिन्न सापेक्षिक दृष्टियों द्वारा ही उसका वास्तविक स्वरूप-दर्शन हो सकता है। विज्ञान हो या धर्म सापेक्षता की मूल धारणा एक-सी रहेगी, सिद्धान्त एक-सा होगा। वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने सापेक्षता के सिद्धान्त द्वारा सिद्ध किया है कि परमाणु में अनन्त शक्ति विद्यमान है। यह सिद्धान्त भगवान् महावीर ने हजारों वर्ष पूर्व खोज निकाला था। स्याद्वाद नित्य व्यवहार की वस्तु स्याद्वाद जीवन में नित्य व्यवहार की वस्तु है। इसकी उपादेयता स्वीकार करनी होगी अन्यथा लोक-व्यवहार चलना कठिन है। जो अनेकान्त का विरोध करते हैं वे भी इसे अपने जीवन में अपनाते हैं । स्याद्वाद ऐसा सिक्का है जो समस्त विश्व में चलता है । इसकी मर्यादा से बाहर कोई वस्तु नहीं है । जैनाचार्यों ने अपने सरस साहित्य द्वारा इस ज्ञान-गभित सिद्धान्त को जनसाधारण तक पहुंचाया। तत्वार्थ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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