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राजवातिक' में आचार्य अकलंकदेव ने बताया है कि वस्तु का वस्तुत्त्व इसी में है कि वह अपने स्वरूप को ग्रहण करे और पर की अपेक्षा अभावरूप हो । इन विधि-निषेध दृष्टियों को अस्ति और नास्ति दो भिन्न धर्मों द्वारा बताया।
स्याद्वाद सत्याग्रह है
साररूप में यह सिद्धान्त हमें सजग किए रहता है कि जगत् के अनेक रूप हैं, पक्ष हैं, गुण हैं । मानव अपनी सीमित अवधारण क्षमता के कारण एक रूप, एक पक्ष, एक गुण को ग्रहण कर पाता है और इसी गर्व में भरकर स्व से भिन्न रूपों, पक्षों, गुणों को समझने वाले से झगड़ जाता है। ऐसी स्थिति में दोनों पक्षों का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । क्योंकि वह ज्ञानमद में डूबकर दूसरों से व्यर्थ ही वाद-विवाद में उलझा रहता है। वर्तमान समय में सम्पूर्ण संसार में युद्ध, विध्वंस, वैमनस्य का कारण मानव का यही एकान्त-दृष्टि के प्रति दुराग्रह है। स्याद्वाद सत्याग्रह है जिसका अर्थ है कि जैसे तुम्हारे दृष्टिकोण में सत्यांश है वैसे ही दूसरों के। अपने ही दृष्टिकोण को सत्य और दूसरे के को असत्य नहीं मानना चाहिए।
आत्मवत् व्यवहार का आधार स्याद्वाद
पाश्चात्य दर्शन विघटन मानकर चलता है। भारतीय दर्शन समन्वय को अपनाने में प्रयत्नशील है। कारण यह है कि यहां जीवन के शाश्वत मूल्यों का महत्व है केवल भौतिक व्यवस्था का नहीं। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए सामाजिक संगठन आवश्यक है। मानव अपने जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। इसके लिए ऐसी सामाजिक व्यवस्था हो जो लक्ष्य प्राप्ति के पथ की बाधाओं का उन्मूलन कर सके । आत्मिक समानता की अनुभूति हुए बिना समुचित विकास सम्भव नहीं। समाज के विघटन का मूल हेतु विषमता है । विषमता तभी दूर हो सकती है जब कि सभी से आत्मवत् व्यवहार करें। आत्मवत् व्यवहार तभी आचरित हो सकता है जब अनेकान्त-दृष्टि अपनाई जाय । सामाजिक उत्कर्ष के लिए व्यक्ति में आत्म-निर्णय के साथ आत्मानुशासन आवश्यक है। किसी दूसरे पर अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करे, अपनी सत्ता लादने का प्रयास न करें क्योंकि जितना अधिक बाह्य नियंत्रण होगा उतना ही उसका निस्तेज होगा। इसलिए सापेक्षता की आवश्यकता है । सापेक्षता से ही सत्य का सही ज्ञान तथा निरूपण हुआ। एकांतिक, एकांशिक दृष्टि होने के कारण कुछ व्यक्ति अधिकार, पदलिप्सा में डूबे रहते हैं । दूसरों को अवसर नहीं मिलता तब असंतोष की ज्वाला भड़क उठती है। इस दृष्टि से भारत को ही नहीं विश्व को भी जैन दर्शन की सबसे बड़ी देन स्याद्वाद है । स्याद्वाद इन स्थितियों का निवारण कर सकता है।
संग्रह-वृत्ति का परिहार
विषमता का कारण तृष्णा भी है जिससे संग्रह-वृत्ति जन्म लेती है। यह वृत्ति आसक्ति रूप में बदल जाती है। तभी परिग्रह की भावना जागृत होती है जिससे समाज में अन्याय, अत्याचार, शोषण का जन्म होता है । एक वर्ग सम्पन्न तथा दूसरा विपन्न हो जाता है। जैन दर्शन का स्याद्वाद स्पष्ट करता है कि प्रत्येक व्यक्ति का अस्तित्त्व है, जैसे मैं हूं वैसे वह भी है, मेरी आवश्यकता है वैसे उसकी भी, मैं अधिक संग्रह कर लूंगा तो दूसरों को क्या मिलेगा यह भावना परिग्रह-भावना का उच्छेद करती है। जिससे सामाजिक व्यवस्था में सन्तुलन आता है । स्याद्वाद आध्यात्मिक जीवन का मूल तो है ही लौकिक जीवन को भी सुव्यवस्थित करता है । प्रजातन्त्र के लिए यह आधारशिला है। अनेकान्त आगाध समुद्र है जिसमें एकान्तिक विचाररूपी नदियों को आत्मसात कर लेने की क्षमता है।
स्या द्वाद मन के तनावों को रोकता है
___ पारस्परिक विवाद समाप्त करने के लिए समन्वयकारी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। स्याद्वाद मन के तनावों को रोकता है यदि यह दृष्टि न रहे तो सभी सम्बन्धों में, चाहे वे पारिवारिक हों या सामाजिक, राष्ट्रीय हों या अर्न्तराष्ट्रीय, तनाव, टकराव, संघर्ष छिड़ जाते हैं । अतः इनसे बचने के लिए तथा संतुलित जीवन-यापन करने के लिए अनेकान्त स्याद्वाद को अंगीकार करना आवश्यक है।
स्याद्वाद के महत्व को विदेशी विद्वानों ने स्वीकार किया है। प्रो० हर्मन जेकोबी ने लिखा है-"जैन धर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्त्वज्ञान और धार्मिक पद्धति अभ्यासियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।" आज का विश्व जटिल, गुटबन्दी में संघर्षशील है। प्रत्येक राष्ट्र एक-दूसरे का विश्वास खो बैठा है। सभी राष्ट्र स्वयं को शक्तिशाली मानते हैं। किस समय एक-दूसरे पर प्रहार कर दें कुछ पता नहीं । भौतिक उपलब्धियाँ मिलीं किन्तु मानव आन्तरिक रूप से भीत है । कुछ समान सम्पन्नता वाले राष्ट्र आपस में गुट बनाकर अन्य राष्ट्रों को दबाने के यत्न में है। जिससे चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है । गुटबन्दी का
१. "स्वपरात्मोपादानापोहनव्यवस्था पाद्य हि वस्तुनो बस्तुल्वम् ", तत्त्वार्थ राजवातिक, पृ० २४ जैन दर्शन मीमांसा
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