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________________ समन्वय का मार्ग : स्याद्वाद डॉ० अरुणलता जैन "स्याद्वाद जैन दर्शन का एक अभेद्य किला है जिसके अन्दर प्रतिवादियों के गोले प्रवेश नहीं कर सकते।", महामहोपाध्याय पं० स्वामी राम मिश्र शास्त्री के स्याद्वाद के विषय में उक्त विचार बड़े ही समीचीन हैं। वस्तुत: स्याद्वाद जैन दर्शन में व्यवहृत अनेकान्त सिद्धान्त की एक पद्धति विशेष है जो वस्तु के अनन्त ज्ञानांशों का प्रकारान्तर से प्रकाशन करती है । एकान्तिक, एकांशिक, एकांगिक दृष्टियों से समाज, राष्ट्र, विश्व में वैयक्तिक-विग्रह उत्पन्न होता है । स्याद्वाद उसका निवारक है साथ ही सत्य का निकट से परिचय कराता है। स्याद्वाद वैज्ञानिक उपाय ___ यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो वस्तु के परिज्ञान के साधन प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष एक ही रूप में उसका ज्ञान उजागर नहीं करते । स्वाध्ययन और अनुभव के आधार पर पदार्थ के भिन्न-भिन्न रूप अनुभूति में आते हैं जिन्हें तर्क द्वारा झुठलाया नहीं जा सकता और न भ्रमपूर्ण कहा जा सकता है। इन भिन्न-भिन्न दृष्टियों, अनुभूतियों पर अनेकान्त दृष्टि से विचार न करके जब संकीर्ण-भाव से विचार कर एकान्त दृष्टि से असत्य मान लेते हैं, तब ऐसे विचार संघर्ष का कारण बनते हैं । ऐसी दृष्टि वाले लोग एकान्तवादी होने के कारण सत्य के सर्वांगीण विकास से वंचित रह जाते हैं । जैन दर्शन का स्याद्वाद एक वैज्ञानिक उपाय है जो ऐसी तमोमय स्थिति को प्रकाशमान तथा गतिमान बनाता है। स्याद्वाद का अर्थ ____ अब देखना यह है कि स्याद्वाद है क्या जिसमें संघर्ष-निवारण तथा शान्ति-प्रसारण की शक्ति निहित है। स्याद्वाद यौगिक शब्द है, स्यात् +वाद, "स्यात् सहितं वाद स्याद्वादः।" स्यात् शब्द सापेक्षता की सिद्धि करता है जिसका अर्थ है कथंचित् तथा वाद का अर्थ है कथन । इस प्रकार 'स्यात्' सहित कथन होने के कारण यह पद्धति स्याद्वाद कहलाती है। किसी पदार्थ के शेष अनेक गुणों को नकारते नहीं वरन् गौण बनाकर तत्कालिक स्थित्यनुसार गुण विशेष का प्रमुख रूप से प्रतिपादन करना ही स्याद्वाद है । सकलादेश, विकलादेश दृष्टि यह कथन के साथ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग एकान्त दृष्टि का निराकरण करती है । जब पदार्थ के अनन्त गुणों धर्मों पर दृष्टि रहती है तब इसे सकलादेश दृष्टि तथा पदार्थ के एक गुण धर्म विशेष को मुख्य तथा शेष गुणों को गौण बनाकर कथन किया जाय तो यह विकलादेश दृष्टि होती है । सकलादेश प्रमाण-दृष्टि तथा विकलादेश नय-दृष्टि कहलाती है । सद्रूप पदार्थ में रहे हुए अनन्त धर्मों को एक साथ विषय करने वाला प्रमाण है, “सकलादेश प्रमाणाधीनाः" । प्रमाण वस्तु को अखंड रूप में ग्रहण करता है। प्रमाण-दृष्टि में वस्तुगत समस्त धर्मों में विशेष, गौण स्थिति नहीं होती है । वस्तु किसी अपेक्षा से कथंचित् सत् है। इस कथन में वस्तु के एक अस्तित्व गुण का कथन है । उसमें निहित अनेक का नहीं । किन्तु यहां वक्ता का अभिप्राय प्रतिपादित अस्तित्व गुण के साथ, उसमें निहित अविवक्षित नास्तिकत्व, अबक्तव्य आदि गुणों के कथन से भी है। नय की दृष्टि से वस्तुगत अन्य विवक्षित-धर्मा गौणता की दृष्टि में आते हैं। जबकि प्रमाण-दृष्टि से ये सभी धर्म एक गुण के प्रतिपादन द्वारा एकसाथ ग्रहण कर लिये जाते हैं। एक वस्तु में अविरोध रूप में सत्-असत् आदि धर्म की कल्पना की जाती है। इस प्रकार सातों में से किसी-किसी धर्म की मुख्यता से समान धर्मों के ग्रहण करने में प्रमाण सप्तभंगी' प्रतीत होता है। ये दोनों दृष्टियाँ सात नामों से निर्दिष्ट १. "एकस्मिन्न विरोधेन प्रमाणनयवाक्यतः । सदादि कल्पना या च सप्तभंगीति सा मता ॥", पंचास्तिकाय १४/३०/१५ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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