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________________ 'इसी प्रकार गौतम ! धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। प्रतिपूर्ण प्रदेशों को ही धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है।' 'अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय ओर पुद्गलास्तिकाय के लिए भी यही नियम है।" द्रव्य, द्रव्यराशि और उसका विशेष गुण त्रैकालिक (सार्वदेशिक और सार्वकालिक) होने के कारण ध्रौव्य हैं। द्रव्य के प्रदेश न उत्पन्न होते हैं और न नष्ट होते हैं, इसलिए वे ध्रुव हैं । उन्हें जानने वाला नय द्रव्याथिक नय है। यही निश्चय नय है। द्रव्य के प्रदेशों में परिणमन होता है। वह उत्पाद और व्यय है। उसे जानने वाला नय पर्यायाथिक नय है। यही व्यवहार नय है। निश्चय नय इन्द्रिय सीमा को पारकर केवल आत्मा से होने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान है। इसलिए वह व्यक्त पर्याय (व्यंजन पर्याय अथवा द्रव्य का वर्तमान स्थूल पर्याय) को भेदकर द्रव्य के मूल स्वरूप तक पहुंच जाता है। चीनी पुद्गल का एक व्यक्त पर्याय है । निश्चय नय से जानने वाले के लिए चीनी केवल सफेद रंग और मिठास वाली नहीं है, वह एक पौद्गलिक स्कंध है, जिसमें प्रत्यक्ष हो रहे हैं-पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श-पुद्गल के मौलिक गुण ।। निश्चय नय से जानने वाला द्रव्य के विभिन्न पर्यायों को मौलिक द्रव्य नहीं मानता, किन्तु वह मूल द्रव्य को ही द्रव्य के रूप में स्वीकृति देता है। इसलिए उसकी दृष्टि में द्रव्य का जगत् सिकुड़ जाता है, अभेद प्रधान बन जाता है । व्यवहार नय बाह्य माध्यमों की सहायता से होने वाला इन्द्रिय ज्ञान है । इसलिए वह अव्यक्त पर्याय की सीमा में प्रवेश नहीं कर पाता, केवल व्यक्त पर्याय को ही जान पाता है। चीनी में सभी वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं, फिर भी व्यवहार नय से जानने वाला उसके व्यक्त पर्याय (सफेद रंग और मिठास) को ही जान पाता है। उसमें द्रव्य के मूल स्वरूप तक पहुंचने की क्षमता नहीं होती । अत: व्यवहार नय की दृष्टि में द्रव्य का जगत् बहुत बड़ा होता है। वह व्यक्त पर्याय के आधार पर प्रत्येक द्रव्य को स्वतंत्र रूप में स्वीकार कर लेता है। इसमें भेद प्रधान बन जाता है। अनेकान्त के अनुसार द्वैत और अद्वैत भेद और अभेद के आधार पर प्रतिष्ठित हैं। द्वैत के बिना अद्वैत और अद्वैत के बिना द्वैत नहीं हो सकता । अभेद का चरम बिन्दु है अस्तित्व । उसकी अपेक्षा अद्वैत सिद्ध होता है। अपने-अपने विशेष गुण की अपेक्षा से द्वैत सिद्ध होता है। जैसे दो द्रव्यों में अभेद और भेद का सम्बन्ध पाया जाता है, वैसे ही एक द्रव्य में भी अभेद और भेद दोनों पाए जाते हैं । गुण और पर्याय द्रव्य (द्रव्य की प्रदेश राशि) में होते हैं । उसके बिना नहीं होते । इस अपेक्षा से द्रव्य, गुण और पर्याय में परस्पर अभेद है। जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह पर्याय नहीं है। इस अपेक्षा से तीनों-द्रव्य, गुण और पर्याय में भेद है। एक ही द्रव्य द्रव्य की दृष्टि से एक और पर्याय की दृष्टि से अनेक है । द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से द्रव्य एक या अखण्ड है । पर्यायाथिक नय की अयेक्षा से द्रव्य में प्रदेश, गुण और पर्याय होते हैं, अतः वह अनेक है । ध्रौव्य द्रव्य का शाश्वत अंग है। उत्पन्न होना और विनष्ट होना-ये द्रव्य के अशाश्वत अंग हैं । द्रव्य जगत् का यह सार्वभौम नियम है कि ध्रौव्य के बिना उत्पाद और व्यय नहीं होते तथा उत्पाद और व्यय से पृथक् कहीं ध्रौव्य नहीं मिलता। दोनों विरोधी स्वभाव के हैं, पर दोनों में सह-अस्तित्व है और दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं । द्रव्य में शाश्वत और अशाश्वत का विरोधी युगल विद्यमान है। उसमें केवल एक विरोधी युगल ही नहीं किन्तु ऐसे अनन्त विरोधी युगल विद्यमान हैं। उन सबमें सह-अस्तित्व है। विरोध और सह-अस्तित्व ये दोनों सार्वभौम नियम हैं। इस जगत् में ऐसा कोई भी अस्तित्व नहीं है जिसका पक्ष हो और प्रतिपक्ष न हो तथा पक्ष और प्रतिपक्ष में सहअस्तित्व न हो। यह दार्शनिक सत्य अब वैज्ञानिक सत्य भी बन रहा है। वैज्ञानिक जगत् में प्रतिकण और प्रतिपदार्थ के सिद्धान्त मान्यता प्राप्त कर रहे हैं। परमाणु में जितनी संख्या एलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोन आदि कणों की होती है, उतनी ही संख्या प्रतिकणों की होती है । एलेक्ट्रोन का प्रतिकण पोजिट्रोन, प्रोटोन का प्रतिप्रोटोन और न्यूट्रोन का प्रतिन्यूट्रोन होता है। परमाणु के नाभिक का जब विखंडन होता है तब ये प्रतिकण एक सैकेण्ड के करोड़वें भाग से भी कम समय के लिए अस्तित्व में आते हैं। उस समय कण और प्रतिकण में टकराव होता है । फलस्वरूप गामा किरणे या फोटोन्स पैदा होते हैं। वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि प्रतिकण कण का प्रतिद्वन्द्वी होते हुए भी उसका पूरक है। वे दोनों साथ-साथ रहते हैं, परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और उनमें क्रिया-प्रतिक्रिया का व्यवहार भी चलता है। उनके सह-अस्तित्व या सहयोग, विरोध या संघर्ष, १. अंगसुत्ताणि, भाग २, भगवती, २११३०-१३५ २. 'उप्पज्जति वियंति य, भावा नियमेण पज्जवनयस्स । दवट्ठियस्य सव्वं, अणुप्पन्नमविण ठ ।।,' सन्मति प्रकरण, १।११ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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