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________________ क्रिया या प्रतिक्रिया को पेण्डुलम के उदाहरण से समझा जा सकता है। . अनेकान्तवाद के आधार पर चार विरोधी युगलों का निर्देश किया जाता है---- १. शाश्वत और परिवर्तन । २. सत् और असत् (अस्तित्व और नास्तिक) ३. सामान्य और विशेष । ४. वाच्य और अवाच्थ ।। इन चार विरोधी युगलों का निर्देश केवल एक संकेत है। द्रव्य में इस प्रकार के अनन्त विरोधी युगल हैं। उन्हीं के आधार पर अनेकान्त का सिद्धान्त प्रतिष्ठित हुआ है। ध्रौव्य प्रकंपन के मध्य अप्रकंपन है, परिवर्तन के मध्य शाश्वत है। पर्याय (उत्पाद-व्यय) अप्रकंप की परिक्रमा करता हुआ प्रकंपन और शाश्वत की प्ररिक्रमा करता हुआ परिवर्तन है। द्रव्य ध्रौव्य का प्रतिनिधित्व करता है और पर्याय परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करता है। अस्तित्व में अपरिवर्तन और परिवर्तनशील-दोनों प्रकार के तत्त्व विद्यमान रहते हैं। कोई भी अस्तित्व शाश्वत की सीमा से परे नहीं है और कोई भी अस्तित्व परिवर्तन की मर्यादा से मुक्त नहीं है। द्वैतवाद-पुरुष और प्रकृति के द्वैतवाद पर सांख्य-दर्शन निम्नलिखित युक्तियों के माध्यम से पहुंचता है असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात्। शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ सांख्यकारिका, का०६ १. अभावात्मक पदार्थ किसी भी क्रिया का विषय नहीं हो सकता। आकाशकुसुम उत्पन्न नहीं किया जा सकता। असत् को कभी भी सत् नहीं बनाया जा सकता। नीले को सहस्र कलाकार भी पीले में परिवर्तित नहीं कर सकते-नहि नीलं शिल्पिसहस्रणापि पोतं कर्तुं शक्यते--सांख्यतत्त्वकौमुदी। २. उत्पन्न पदार्थ उस सामग्री से भिन्न नहीं है, जिससे कि वह बना है— उपादाननियमात्- सांख्यसूत्र, १/११५ । ३. उत्पन्न होने से पूर्व वह सामग्री के रूप में विद्यमान रहता है। यदि इसे स्वीकार न किया जाए तो हर किसी ____ वस्तु से प्रत्येक वस्तु उत्पन्न हो सकेगी असत्त्वे नास्ति सम्बन्धः कारणः सत्त्वसंगिभिः । असम्बद्धस्य चोत्पत्तिमिच्छतो न व्यवस्थितिः॥ ४. कार्यकारणभाव-सम्बन्धी योग्यता उसी से सम्बद्ध रहती है जिसके अन्दर आवश्यक क्षमता रहती है शक्तिश्च शक्तिमत्सम्बन्धरूपा संयोगवदुभयत्र या शक्याभावे न सम्भवतीति शक्यभावोऽभ्युपेयः। इति न्यायकणिकाचार्याः । ५. कार्य का स्वरूप वही होता है जो कारण का होता है । अपने तात्त्विक रूप में कपड़ा धागों से भिन्न नहीं है। ऐसे पदार्थों में जो एक-दूसरे से तात्त्विक रूप में भिन्न हैं, कार्यकारणसम्बन्ध नहीं हो सकता–कारणभावाच्च कार्यस्य कारणात्मकत्वात्-सांख्यतत्त्वकौमुदी। कारणभावात् कारणस्य सत्त्वादित्यर्थ अथवा कारण स्वभावात्, यत्स्वभावं कारणं तत्स्वभावं कार्यम्-जयमंगला। अनेकान्तवाद-अनेक धर्मों के एक रसात्मक मिश्रण से उत्पन्न जात्यन्तरभाव को अनेकान्त कहते हैं-को अणेयंतो णाम? जच्चतरत्तं । धवला,१५/२५/१ अनेकान्त के बिना वस्तुतत्त्व सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि वह भेद ज्ञान से अनेक और अभेद ज्ञान से एक है । अतः भेदाभेद ज्ञान (अनेकान्त) ही सत्य है। इनमें से एक कोही सत्य मानना तथा उसका अन्य में उपचार करना मिथ्या है, क्योंकि एक का अभाव मानने पर दूसरे का भी अभाव हो जाता है और इस प्रकार वस्तुतत्त्व निःस्वभाव हो जाता है। वस्तु को सर्वथा नित्य मानने पर उसमें उदय-अस्त या क्रियाकारक योजना नहीं बन सकती। सर्वथा असत् का कभी जन्म नहीं हो सकता और सर्वथा सत् का नाश नहीं हो सकता। यथा-दीपक बुझने पर भी अन्धकार रूपी पर्याय को धारण किए हुए अस्तित्व में रहता ही है। वास्तव में विधि और निषेध दोनों कथंचित् इष्ट हैं. विवक्षावश उनमें मुख्य गौण की व्यवस्था होती है। (द्रष्टव्य-स्वयंभूस्तोत्र, २२-२५) (सर्वपल्ली डा० राधाकृष्णन् के 'भारतीय दर्शन' तथा आचार्यरत्न श्री देश भूषण जी महाराज के उपदेशों के आधार पर) आचार्यरत्न श्री बेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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