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________________ देवमूरि प्रसिद्धवादी थे । अतः वादीदेवसूरि इसी रूप में उनका नाम विख्यात हुआ। इनका जन्म सन् १०८७ में हुआ था। ये नौ वर्ष की अवस्था में बृहद्गच्छ के यशोभद्र के शिष्य मुनिचन्द्र के शिष्य बने थे। आपका कार्यक्षेत्र गुजरात रहा। इन्होंने स्याद्वाद का स्पष्ट विवेचन करने के लिए प्रमाणनयतत्त्वालोक नामक जैन-न्याय का सूत्र-ग्रन्थ लिखा और उस पर स्याद्वादरत्नाकर नामक बृहद्कायटीका की रचना की, जिसमें अपने समय तक के सभी जैन तार्किकों के विचारों को दुहकर संकलित कर दिया, साथ ही अपनी जानकारी के अनुसार ब्राह्मण और बौद्ध परम्परा की शाखाओं के मन्तव्यों की विस्तृत चर्चा भी की। जिससे यह ग्रन्थ रत्नाकर जैसा समग्र मन्तब्य रत्नों का संग्रह बन गया जो तत्वज्ञान के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़े महत्व का है। प्रारम्भिक विद्यार्थियों के लिए इसको संक्षेप में रत्नाकरावतारिका नाम से इनके शिष्य रत्नप्रभ ने लिखा है। ___ कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य तो अपने समय के असाधारण पुरुष हैं। उनके कर्तृत्व से जैन संघ कृतज्ञता अनुभव करने के साथसाथ अपने आपको गौरवशाली अनुभव करता है। जैन न्याय, व्याकरण, काव्य आदि साहित्य के सभी अंगों को आपने पल्लवित करके अनेक नयी देनें दी हैं। इन्होंने अन्ययोगव्यवच्छेदिका, अयोगव्यवच्छेदिका, प्रमाणमीमांसा आदि ग्रन्थों की रचना करके जैन दर्शन के सिद्धान्तों को विकासोन्मुखी बनाया है। अन्ययोगव्यवच्छेदिका के ३२ श्लोकों में चार्वाक, न्यायवैशेषिक, सांख्य-योग, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, योगाचार, माध्यमिक आदि दर्शनों का हृदयग्राही सुन्दरवाणी में जो समन्वय किया है वह अपने ढंग का अनोखा और अभूतपूर्व है। इसके अतिरिक्त शान्तिसूरि का जैनतर्कवार्तिक, जिनदेवसूरि का प्रमाणलक्षण, अनन्तवीर्य की प्रमेयरत्नमाला, चन्द्रप्रभसूरि का प्रमेयरत्नकोष, चन्द्रसूरि का अनेकान्तजयपताका का टिप्पण आदि ग्रन्थ भी इसी युग की कृतियां हैं। इसके पश्चात् तेरहवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी में जैन-दर्शन के जो समर्थ व्याख्याकार और ग्रन्थलेखक हए हैं। उन्होंने स्यादवाद के विभिन्न अंगों की विशद रूप से विवेचना की है। इनमें आचार्य मलयगिरि एक समर्थ टीकाकार हुए हैं। इसी युग में मल्लिषेण की स्याद्वादमंजरी, चन्द्रसेन की उत्पादादिसिद्धि, रामचन्द्र-गुणचन्द्र का द्रव्यालंकार, सोमतिलक की षड्दर्शनसमुच्चयटीका, गुणरत्न की षड्दर्शनसमुच्चयवृहद्वति, राजशेखर की स्याद्वादकलिका आदि, भावसेन त्रैविधदेव का विश्वतत्वप्रकाश, धर्मभूषण की न्यायदीपिका आदि अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे गये हैं। अभी तक के आचार्यों की लेखन-शैली प्राचीन न्याय प्रणाली का अनुसरण करती रही थी। किन्तु विक्रम की तेरहवीं सदी में गंगेश उपाध्याय ने नव्य न्याय की नींव डाली और प्रमाण-प्रमेयों को अवच्छेदकावच्छिन्न की भाषा में जकड़ दिया। जैन विद्वानों ने भी अपने ग्रन्थों में इसका अनुसरण किया है। जिनमें सतरहवीं-अठारहवीं शताब्दी के प्रमुख विद्वान् उपाध्याय यशोविजय जी और पण्डित विमलदासजी के नाम उल्लेखनीय हैं। उपाध्यायजी जैन परम्परा में बहुमुखी प्रतिभा के धारक असाधारण विद्वान् थे। इन्होंने योग, साहित्य, प्राचीन न्याय आदि का गम्भीर पाण्डित्य प्राप्त करने के साथ नव्य-न्याय की परिकृष्त शैली में खण्डनखण्डखाद्य आदि अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया और उस यूग तक के विचारों का समन्वय तथा उन्हें नव्य शैली से परिष्कृत करने का आद्य और महान् प्रयत्न किया। स्याद्वाद के द्वारा अभूतपूर्व ढंग से संपूर्ण दर्शनों का समन्वय करके स्याद्वाद को 'सार्वतांत्रिक"" सिद्ध करना उपाध्यायजी की प्रतिभा का सूचक है। उन्होंने शास्त्रवार्तासमुच्चय की स्याद्वादकल्पलताटीका, नयोपदेश, नयरहस्य, नयप्रदीप, न्यायखण्डनखण्डखाद्य, न्यायालोक, अष्टसहस्रीटीका आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। पण्डित विमलदास जी ने नव्य न्याय का अनुकरण करने वाली भाषा में सप्तभंगीतरंगिणी नामक स्वतंत्र ग्रन्थ की संक्षिप्त और सरल भाषा में रचना करके एक महान् अभाव की पूर्ति की है। इस प्रकार अनेक विद्वशिरोमणि आचार्यों ने ग्रन्थ लिखकर जैन दर्शन के विकास में जो भगीरथ प्रयत्न किये हैं उनकी यहां झलक मात्र प्रस्तुत की गई है। यह स्यावाद साहित्य के विकास का इतिहास भारतीय दर्शन साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है । यह विकास जैनाचार्यों के प्रकाण्ड पाण्डित्य के साथ-साथ उनकी अलौकिक क्षमता तथा सर्वकल्याण की मंगलमयी दृष्टि को प्रकट करता है। भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में जो-जो नवीन धाराएं विशेष विकास को प्राप्त होती गईं; इन सबको जैनाचार्यों ने अपने दर्शन में स्थान देकर न्यायात्मक दृष्टि से सत्य सिद्ध करने के साथ उनका स्तर निर्धारिण करने का प्रयत्न किया है। जो उनके सर्वतोभद्र औदार्यभाव को व्यक्त करता है। "सत्य एक है। उसके रूप अनेक है। भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न देशकाल के अनुसार सत्य के एक अंश को ही ग्रहण कर सकते हैं। अतएव परस्पर विरोधी दिखाई देती हुई भी वे सभी दृष्टियां सत्य हैं जैन विद्वानों का यह मन्तव्य अवश्य ही विशाल, उदार और गम्भीर है। १. 'ब्र वाणा भिन्नभिन्नाग्नियं भेदव्यपेक्षया । प्रतिक्षिपेपुर्नो वेदाः स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम् ॥', अध्यात्मसार, ५१ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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