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________________ पाश्चात्य साहित्य में स्यादवाद वैदिक, बौद्ध आदि भारतीय दार्शनिकों की तरह पाश्चात्य दर्शनों के संस्थापकों ने भी स्याद्वाद सिद्धान्तों को अपने अनुभवों से सिद्ध करके अपने साहित्य में एक सुव्यवस्थित तथा सुनिश्चित रूप दिया है। जिसका यहां संक्षेप में दिग्दर्शन कराते हैं। ग्रीक दर्शन में एलिअटिक्स और हेरेक्लिट्स नामक विचारकों के बाद ईसा से ४६५ वर्ष पूर्व एम्पीडोक्लीज, एटोमिस्ट्रस और अनैक्सागोरस नामक दार्शनिकों का युग था। इन तत्ववेत्ताओं ने एलिअटिक्स के एकान्त नित्यवाद और हेरेक्लिट्रस के एकान्त क्षणिकवाद का समन्वय करके दोनों सिद्धान्तों को नित्यानित्य के रूप में ही स्वीकार किया। इनके मतानुसार सर्वथा-क्षणिकवाद असम्भव है और इसी तरह सर्वथा-नित्यवाद भी। किन्तु साथ ही साथ वस्तु परिवर्तनशील भी अवश्य है । इन विद्वानों ने अनुभव द्वारा नित्य दशा में रहते हुए भी पदार्थों का परिवर्तन देखकर "आपेक्षिक परिवर्तन" के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। इसके पश्चात् हम ग्रीस के प्रतिभाशाली कवि और दार्शनिक विदान् प्लेटो के विचारों की ओर आते हैं। सोफिस्ट नामक संवाद में एलिमा का मुसाफिर कहता है-जब हम "असत्य" के विषय में कुछ कहते हैं तो इसका मतलब 'सत्' के विरुद्ध (सर्वथा असत्) न होकर केवल सत से भिन्न होता है। इसी प्रकार “एलिया" का मुसाफिर संवाद के एक दूसरे स्थान पर भी प्लेटो अपने पात्र के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करते हुए लिखते हैं "उदाहरण के लिए हम एक ही मनुष्य को उसके रंग, रूप, परिणाम, गुण, दोष आदि की अपेक्षा से देखते हैं अतएव हम “यह मनुष्य ही है।" यह न कहकर “यह भला है।" इत्यादि नाना दृष्टि बिन्दुओं से व्यवहार में प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु जिसको हम प्रारंभ में एक समझते हैं अनेक तरह से अनेक नामों द्वारा वर्णन की जा सकती है।" पश्चिम के आधुनिक दर्शन में भी इस प्रकार के विचारों की कमी नहीं है। उदाहरण के रूप में जर्मनी के प्रकाण्ड दार्शनिक हीगेल का कथन है कि 'विरुद्धधर्मात्मकता ही सब वस्तुओं का मूल है । किसी वस्तु का ठीक-ठीक वर्णन करने के लिए हमें उस वस्तु सम्बन्धी सम्पूर्ण सत्य कहने के साथ उस वस्तु के विरुद्ध धर्मों का किस प्रकार समन्वय हो सकता है यह भी प्रतिपादन करना चाहिए।" इसके पश्चात् हम नये विज्ञानवाद के प्रतिपादक ब्रेडले के विचारों पर दृष्टिपात करें। इस दार्शनिक का कहना है कि कोई भी वस्त दसरी वस्तुओं से तुलनात्मक दृष्टि से देखी जाने पर किसी अपेक्षा से आवश्यक और किसी अपेक्षा से अनावश्यक दोनों ही सिद्ध होती है। अतएव संसार में कोई भी पदार्थ नगण्य अथवा आकिंचित्कर नहीं है। प्रत्येक तुच्छ-से-तुच्छ विचार में और छोटी-से-छोटी सत्ता में सत्यता विद्यमान है। आधुनिक दार्शनिक विद्वान् प्रो० जे० अचिम भी अपनी 'सत्य का स्वरूप' नामक प्रसिद्ध पुस्तक में इसी प्रकार के विचार प्रकट करते हैं। इनका कहना है कि कोई भी विचार स्वतः ही दूसरे विचार से सर्वथा अनपेक्षित होकर केवल अपनी अपेक्षा से सत्य नहीं कहा जा सकता । उदाहरण के लिए तीन से तीन गुणा करने पर नौ होता है (३४३-६); यह सिद्धान्त एक बालक के लिए सर्वथा निष्प्रयोजन है। परन्त इसे पढकर गणितज्ञ के सामने गणितशास्त्र के विज्ञान का सारा नक्शा आ जाता है। इसी प्रकार दूसरे तत्त्ववेता प्रोफेसर पेटी के अनुसार यह विश्व किसी अपेक्षा से नित्य है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इसमें परिवर्तन नहीं होता । यही सिद्धांत संसार की छोटी-से-छोटी वस्तओं के लिए भी लागू है। यह ब्रह्मांड नाना दृष्टि-बिन्दुओं से देखा जा सकता है। किसी एक वस्तु के पिंड को जानकर हम उसके विषय में संपूर्ण सत्य जानने का दावा नहीं कर सकते हैं। इसी तरह के विचार नैयायिक जोसफ, एडमण्ड, होम्स प्रभृति विद्वानों ने भी प्रकट किए हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध मानसशास्त्र के विद्वान् प्रो० विलियम जेम्स ने भी अपेक्षावाद से समानता रखने वाले विचारों को व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि "हमारी अनेक दुनिया हैं । साधारण मनुष्य इन सब दुनियाओं को परस्पर असंबद्ध तथा अनपेक्षित दशा में देखता है। पूर्ण तत्त्ववेत्ता वही है जो सम्पूर्ण दुनियाओं को एक-दूसरे से संबद्ध और अपेक्षित रूप में जानता है।" इस प्रकार जैन दार्शनिकों की तरह विश्व के समस्त पौर्वात्य और पाश्चात्य दर्शनों के संस्थापकों ने भी स्यावाद को अपने चिन्तनमनन और आचार-व्यवहार के द्वारा सिद्ध करके किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किया है। और अपने अनुभवों को स्थायी रूप देने के लिए साहित्य का अंग बना दिया। यह स्थिति हमें कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य के निम्नलिखित भावों का स्मरण करने के लिए प्रेरित करती है "आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रानति भेदि वस्तु।" दीपक से लेकर आकाश पर्यन्त छोटे-बड़े सभी पदार्थ स्याद्वाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकते। १. Thilly; History of Philosophy, पृ० २२ २. Dialogues of Plato ३. Thilly; History of Philosophy, पृ० ४६७ ४. Appearance and Reality, पृ०४८७ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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