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________________ ५. नय का स्वरूप। ६. हेतु का स्वरूप। ७. स्यावाद का स्वरूप । ८. वाचक का स्वरूप। ६. अभाव का वस्तुधर्म-निरूपण एवं भावान्तर कथन । १०. वाच्य का स्वरूप। ११. अनेकान्त का स्वरूप । १२. तत्त्व का अनेकान्तरूप प्रतिपादन । १३. अनेकान्त में भी अनेकान्त की योजना। १४. जैन दर्शन में अवस्तु का स्वरूप । १५. 'स्यात् निपात का स्वरूप । १६. अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि । १७. युक्तियों से स्याद्वाद की व्यवस्था। १८. आप्त का तार्किक स्वरूप । १६. वस्तु-द्रव्य-प्रमेय का स्वरूप । स्वामी समंतभद्र के समय के बारे में विद्वानों ने पर्याप्त ऊहापोह किया है। अन्तिम निष्कर्ष के रूप में उनका समय ई० सन् की पहली या दूसरी शताब्दी माना जाता है। समंतभद्र की तरह कवि और दार्शनिक के रूप में आचार्य सिद्धसेन भी बहुत प्रसिद्ध हैं। समंतभद्र द्वारा प्रवर्तित तर्कपूर्ण स्तुतियों की परम्परा में सिद्धसेन की द्वात्रिशिकाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी भाषा साहित्यिक सुन्दरता और तर्क के प्रभावी प्रयोग से युक्त है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्परायें इन्हें अपना-अपना आचार्य मानती हैं। आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में सिद्धसेन को कवि और वादिराजकेसरी कहा है। सन्मतितर्क और न्यायावतार सिद्धसेन रचित दो महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । ये दोनों ग्रन्थ तर्कशास्त्र की दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखते हैं। सन्मतितर्क में १६६ प्राकृत गाथाओं में नय और अनेकान्त का गम्भीर, विशद और मौलिक विवेचन किया गया है। आचार्य ने नयों का सांगोपांग विवेचन करके जैन न्याय की सुदृढ़ पद्धति को प्रारम्भ किया है। कथन करने की प्रक्रिया को नय कहा गया है। विभिन्न दर्शनों का अंतर्भाव विभिन्न नयों में किया है। न्यायावतार में ३२ संस्कृत श्लोकों में प्रमाणों का संक्षिप्त विवेचन है। जैन साहित्य में प्रमाण-विवेचन सर्वप्रथम इसी ग्रन्थ में मिलता है। प्रमाण के स्वपरावभासक लक्षण में 'बाघजित विशेषण देकर उसे विशेष समृद्ध किया गया है। ज्ञान की प्रमाणता और अप्रमाणता का आधार मोक्षमार्गोपयोगिता की जगह धर्मकीति की तरह "मेयविनिश्चय" को रखा गया है। इससे यह प्रतिभासित होता है कि इन आचार्यों के युग में 'ज्ञान' दार्शनिक क्षेत्र में अपनी प्रमाणता बाह्यार्थ की प्राप्ति या मेयविनिश्चय से ही सिद्ध कर सकता था। आचार्य सिद्धसेन ने न्यायावतार में प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम--ये तीन भेद किए हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान के स्वार्थ और परार्थ भेद किये हैं। अनुमान और हेतु का लक्षण करके दृष्टान्त, दूषण आदि परार्थानुमान के समस्त परिकर का निरूपण किया है। आचार्य सिद्धसेन के समय के सम्बन्ध में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। कोई इन्हें प्रथम शताब्दी का और कोई चतुर्थ शताब्दी का विद्वान् समझती है । लेकिन अनेक अन्वेषकों ने इनका समय ई० की चौथी शताब्दी सिद्ध किया है। सिद्धसेन और समंतभद्र समकालीन भले ही न हों किन्तु इनके द्वारा रचित ग्रन्थों को देखने से यह धारणा पुष्ट होती है कि ये दोनों अद्भुत प्रतिभा के धनी मौलिक विद्वान् थे। इन विद्वान् आचार्यों ने जैन तर्कशास्त्र पर सन्म तितर्क, न्यायावतार, युक्त्यनुशासन, आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थों में लिखकर जैन दर्शन के मूल स्याद्वाद सिद्धान्त को सांगोपांग परिपूर्ण बनाकर जैन सिद्धान्त को सबसे पहले सर्वदा के लिए अटल बनाया था। उपनिषदों के अद्वैतवाद का जो समन्वय आगम सूत्रों तथा दिगम्बरीय पंचास्तिकाय और प्रवचनसार नामक ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होता था, उसे इन प्रकाण्ड विद्वानों ने बहुत सुन्दर रूप में दार्शनिकों के समक्ष उपस्थित करके अपनी-अपनी अपूर्व प्रतिभा का परिचय दिया था। सिद्धसेन और समंतभद्र ने घट, मौलि, सुवर्ण, दुग्ध, दधि, अगोरस आदि अनेक प्रकार के दृष्टांतों से और नयों के सापेक्ष वर्णन से द्रव्याथिक पर्यायाथिक नयों में जैनेतर सम्पूर्ण दृष्टियों को अनेकांत दृष्टि का अंशमात्र प्रतिपादित कर मिथ्यादर्शनों के समूह को जैन दर्शन बताते १. 'उद्धाविव सर्वसिधवः समुदीर्णास्त्वियि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरिस्विबौदधिः ॥, सिद्धसेन : द्वा० द्वाविशिका जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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