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________________ जैन साहित्य में स्यादस्ति आदि स्याद्वाद के सूचक सप्तभंगों के नाम सर्वप्रथम हमें आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय और प्रवचनसार में देखने को मिलते हैं । परन्तु यहां भी स्याद्वाद के विषय में विशेष चर्चा नहीं है। यही कारण है कि उक्त ग्रन्थों में सप्तभंगों के नाममात्र गिनाए गये हैं। दक्षिण भारत के जैन संघ में असाधारण रूप से सम्मानित आचार्य कुन्दकुन्द का मूल नाम पद्मनन्दि था। कोण्डकुन्द यह उनके मूल स्थान का नाम था जो दक्षिण की परम्परा के अनुसार उनके नाम के रूप में प्रचलित हुआ तथा संस्कृत में यही नाम कुन्दकुन्द के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यह कोण्डकुन्द अब कोनकोण्डल कहलाता है तथा आन्ध्रप्रदेश के अनन्तपुर जिले में स्थित है। यहां कई जैन शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इनके उपलब्ध ग्रन्थों में दशभक्ति, अष्टप्राभूत, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार और समयसार के नाम उल्लेखनीय हैं । इनकी सभी रचनाएं शौरसेनी प्राकृत में हैं । दशभक्ति और अष्टप्रामृत ये प्रारम्भिक रचनाएं प्रतीत होती हैं। नियमसार में आध्यात्मिक दृष्टि से साधु जीवन के विविध अंगों का वर्णन किया गया है। पंचास्तिकाय में१७३ गाथाएं हैं। जिनमें छह द्रव्यों और नौ पदार्थों का विवरण मिलता है। प्रवचनसार में ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इन तीन अधिकारों (प्रकरणों) में २७५ गाथायें हैं। सर्वज्ञ के दिव्य ज्ञान और उनके द्वारा उपदिष्ट द्रव्य स्वरूप का प्रभावी समर्थन इसमें प्राप्त होता है। समयसार में ४३७ गाथायें हैं। जिनमें निश्चयनय और व्यवहारनय की विभिन्न दृष्टियों से आत्म-तत्त्व का विशद वर्णन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा किये गये स्याद्वाद सूचक सप्तभंगों के उल्लेख से यह जान पड़ता है कि इस समय जैन आचार्य अपने सिद्धान्तों पर होने वाले प्रतिपक्षियों के कर्कश तर्क-प्रहारों से सतर्क हो गये थे और यहीं से स्याद्वाद का सप्तभंगमय विकास प्रारम्भ होता है । इस विकास का श्रेय आचार्य सिद्धसेन दिवाकर तथा स्वामी समन्तभद्र को है। इन दोनों आचार्यों से पूर्व जैनदर्शन में तर्कशास्त्र विषयक किसी स्वतंत्र सिद्धान्त की स्थापना नहीं हुई थी। इन विद्वानों के पूर्व का युग विशेषत: आगमप्रधान ही था, लेकिन गौतम के "न्यायसूत्र" की रचना के पश्चात जैसे-जैसे तर्क का प्रचार बढ़ने लगा वैसे-वैसे जैन तथा बौद्ध विद्वानों ने अपने-अपने दर्शनों में तर्क-पद्धति को स्थान देना प्रारम्भ किया। फलतः बौद्ध और जैन श्रमणों ने अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रतिपक्षियों के तर्क प्रहारों से सुरक्षित रखने के लिए क्रमशः शून्यवाद और स्यावाद को एक सुनिश्चित तथा सुव्यवस्थित स्थान दिया। वाचक उमास्वाति आदि अन्य आचार्यों के द्वारा जैन वाङ्मय में संस्कृत भाषा का प्रवेश होने के कई शताब्दी पूर्व ही यह भाषा बौद्ध साहित्य में अपना उच्च स्थान बना चुकी थी। जब बौद्ध दर्शन में नागार्जुन, वसुबंधु, असंग तथा बौद्ध न्याय के पिता दिङ्नाग का युग आया तब दर्शनशास्त्रियों में इन बौद्ध दार्शनिकों के प्रबल तर्क प्रहारों से बेचैनी उत्पन्न हो रही थी। दर्शनशास्त्र के तार्किक अंश और परपक्षखंडन का युग प्रारम्भ हो चुका था। इस युग में जो धर्म संस्था प्रतिवादियों के आक्षेपों का निराकरण करके स्वदर्शन की प्रभावना नहीं कर सकती थी उसका अस्तित्व ही खतरे में था। अतः पर चक्र से रक्षा करने के लिए अपना दुर्ग स्वतः सुरक्षित बनाने का महत्वपूर्ण कार्य स्वामी समंतभद्र और सिद्धसेन दिवाकर इन दो महान् आचार्यों ने किया। स्वामी समंतभद्र प्रसिद्ध स्तुतिकार थे। इन्होंने दर्शन, सिद्धान्त एवं न्याय सम्बन्धी मान्यताओं को स्तुति काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। समंतभद्र की रचनाएं निम्नलिखित मानी जाती हैं-- (१) बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, (२) स्तुति विद्या अथवा जिनशतक, (३) देवागमस्तोत्र या आप्तमीमांसा, (४) युक्त्युनुशासन या वीरस्तुति, (५) रत्नकरण्डश्रावकाचार, (६) जीवसिद्धि, (७) तत्त्वानुशासन, (८) प्राकृत व्याकरण, (६) प्रमाणपदार्थ, (१०) कर्मप्रामृतटीका, (११) गन्धहस्तिमहाभाष्य । इनमें से कई रचनाएं अनुपलब्ध हैं । उपलब्ध ग्रन्थों को देखने से प्रतीत होता है कि समंतभद्र अत्यन्त प्रतिभाशाली और स्वसमय, परसमय के सारस्वत ज्ञाता थे। उनकी कारिकाओं के अवलोकन से उनका विभिन्न दर्शनों का पांडित्य अभिव्यक्त होता है। उन्होंने देवागमस्तोत्र (आप्तमीमांसा) में आप्तविषयक मूल्यांकन में सर्वज्ञाभाववादी-मीमांसक, भावकान्तवादी-सांख्य, एकान्तपर्यायवादी-बौद्ध तथा सर्वथाउभयवादीवैशेषिक का तर्कपूर्ण विवेचन कर उनका निराकरण किया है । प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव का सप्तभंगी न्याय द्वारा समर्थन कर वीरशासन की महत्ता प्रतिपादित की है। सर्वथा अद्वैतवाद, द्वैतवाद, कर्माद्वैत, फलाद्वैत, लोकाद्वैत प्रभृति का निरसन कर अनेकान्तात्मकता सिद्ध की है। इनमें अनेकान्तवाद का स्वस्थ स्वरूप विद्यमान है। स्वामी समंतभद्र ने अपने ग्रन्थों में जैन दर्शन के निम्नलिखित सिद्धान्तों का निरूपण किया है-- १. प्रमाण का स्वपराभास लक्षण । २. प्रमाण के क्रमभावी और अक्रमभावी भेदों की परिकल्पना । ३. प्रमाण के साक्षात् और परम्परा फलों का निरूपण । ४. प्रमाण का विषय । आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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