SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 499
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को दूर करें तथा साधु पापों के उच्चाटन, मारण आदि में सहायक हों। हमें पंच तत्त्वों में पंचपरमेष्ठियों का ध्यान करना चाहिए। अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और मुनि इनके पंचाक्षरों से निष्पन्न ओंकार ही पंचपरमेष्ठी हैं। वर्तुलाकार हेतु त्रिकोणाकार सिद्ध, नोष्टकाकार आचार्य, द्वितीया तिथि की चन्द्रकला के समान आकारधारी उपाध्याय तथा दीर्घकलाकार साधु सभी भक्तों के लिए सुखकर हों। वर्णक्रम (स्वर) में अ आ के रूप में अर्हत्, इ ई उ ऊ के रूप में सिद्ध, ए ऐ के रूप में आचार्य, ओ ओ के रूप में उपाध्याय तथा अं अः के रूप में मुनि जयशाली हैं। इसी प्रकार नव ग्रहों, वर्णों (रंगों), रसों, तिथियों, सात दिनों (वारों), मासों, नक्षत्रों तथा राशियों के रूप में पंच परमेष्ठियों का ध्यान करना चाहिए। पंचनमस्कार-मन्त्र के स्मरण, पाठ, उच्चारण तथा ध्यान से सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं और जीव आत्म-कल्याण करके सम्यग्ज्ञान प्राप्त करता है। श्री पंचपरमेष्ठि मन्त्र- प्रभाव फलम् पंचबीज रूप पंचपरमेष्ठि-मन्त्र के पाठ के अनन्तर इस अपराजित मन्त्र के महान् प्रभाव का वर्णन है । इसी मन्त्र के समाराधन और प्रभाव से रत्नत्रय का पालन करके योगी मुनि संसार-बन्ध से मुक्त होकर परम-पद मुक्ति को प्राप्त करते हैं। संसार सागर में मग्न तथा व्यसन के पाताल में प्रविष्ट मनुष्य का भी उद्धार इस मन्त्र से हो जाता है। मन-वचन-काय द्वारा इसका १०८ जाप करना चाहिए। यह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों का फल प्रदान करता है। सोलह अक्षरों तथा पंचपरमेष्ठी रूप गुरुओं से युक्त यह मन्त्र सभी इच्छाओं को पूर्ण करता है । अतः सदैव मन-वचन-काय गुप्ति की अवस्था में मौनपूर्वक इस मन्त्र का ध्यान करना चाहिए। वज्रपंजरस्तोत्रम् पंचपरमेष्ठी - नमस्कार मन्त्र नवपदात्मक है। यह सभी मन्त्रों का सारभूत है। यह हमारे सिर, कन्धों, मुख आदि सभी अंगों की रक्षा करे। यह सभी उपद्रवों, भयों, आधि-व्याधि तथा सभी विघ्न-बाधाओं का नाश करके आत्मा की रक्षा करता है । इसी प्रकार 'भस्मपंजरस्तव राज' स्तोत्र का अर्थ समझना चाहिए। जिनजर स्तोत्रम् " पंचनमस्कार मन्त्र का महत्त्व वर्णित करके मुनि श्री सूरीन्द्र ने इस स्तोत्र में मन्त्र-पाठ की विधि लिखी है। साधक ब्रह्मचर्यव्रत धारण करे, पृथ्वी पर शयन करे, क्रोध एवं लोभ का त्याग करे तथा मन-वचन-काय द्वारा देवताओं का ध्यान करे। इस प्रकार वह छह मासों में इष्ट फल प्राप्त करता है। साधक मस्तक पर 'अर्हत्' को चक्षु एवं ललाट में सिद्ध को, दोनों कानों के मध्य भाग में आचार्य को, नासिका में उपाध्याय को, और मुखाग्र में साधुओं को भावनापूर्वक स्थापित करे। पंचपरमेष्ठी सभी अंगों तथा दिशाओं में साधकों की रक्षा करें। चौबीस तीर्थंकर साधकों के सभी अंगों की रक्षा करें । राजद्वार, श्मशान, संग्राम, शत्रु-संकट, चोर, सर्प, भूत-प्रेत, अकाल मृत्यु, विपत्ति, दरिद्रता, ग्रहपीड़ा आदि सभी प्रसंगों में इस मन्त्र का ध्यान करना चाहिए। इसके पाठ से साधक कमलप्रभा नामक लक्ष्मी को प्राप्त करता है। तत्वार्थसार दीपके पदस्थ भावना प्रकरणम् भट्टारक श्री सकलकीर्ति-विरचित 'तत्वार्थसार दीपक में से पदस्थ भावना- प्रकरण को उद्धृत किया गया है। सिद्धान्त के बीज - -भूत सार- पदों के अवलम्बन से जो ध्यान योगियों द्वारा किया जाता है, वह 'पदस्थ ध्यान' कहलाता है। इसमें वर्णमातृका (सिद्ध- मातृका ) के ध्यान की विधि का वर्णन है। आदिनाथ भगवान् के मुख से उत्पन्न, सकल आगमों की विधायिका तथा अनादि सिद्धान्त में विख्यात वर्ण-मातृकाओं का विधिपूर्वक ध्यान करने वाला साधक श्रुत सागर के पार हो जाता है। अर्हन् नामक गणाधीश मन्त्र सभी तत्त्वों का मुख्य नायक है। देव तथा असुर - सभी इसे नमस्कार करते हैं। सूर्य के समान यह मिथ्याज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करता है । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, बुद्ध आदि नामों से प्रसिद्ध इस मन्त्र में स्वयं सर्वत्र तथा सर्वव्यापी देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् विराजमाज हैं। जिसने एक बार भी इस मन्त्र का उच्चारण कर लिया अथवा हृदय में स्थिर कर लिया, उसने मोक्ष के लिए श्रेय पाथेय का संग्रह कर लिया । - अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा मुनि इन परमपूज्य पंचपरमेष्ठियों के पदों के प्रथम अक्षरों (अ अ आ उम्= ॐ) से ऊँ कार नामक परम मन्त्र का निष्पादन हुआ। यह मन्त्र सभी कामनाओं तथा प्रयोजनों की पूर्ति करता है, चिन्तामणि के समान अभीष्ट सिद्धियां प्रदान करता है तथा कर्म रूपी शत्रुओं का विनाश करता है। अतः बुद्धिमान् व्यक्ति बड़ी युक्ति से कमल जाप से चंचल मन को वश में करके इसका विधिपूर्वक ध्यान करे वहाँ मन्त्र-सिद्धि की विधि विस्तारपूर्वक समझाई गई है। मन्त्र के प्रभाव का कि इस मन्त्र के जाप से उपवास न करने पर भी उपवास का फल मिलता है, दुष्कर्म नष्ट हो जाते हैं, दुष्ट, शत्रु, 1 वर्णन करते हुए कहा गया है राजा, चोर आदि से उत्पन्न सूजन-संकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only ७१ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy