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________________ पंच-परमेष्ठी-स्वरूप-वर्णन के अनन्तर सम्यग्ज्ञान का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। सम्यग्ज्ञानी जीव उन्हीं कार्यों में स्वानुभवपरिणति द्वारा कर्म-निर्जरा प्राप्त करता है जिनसे अज्ञानी रागान्ध होकर 'बन्ध' को प्राप्त करता है, अतः मिथ्यात्व रूपी विष को त्याग कर सम्यक्त्व रूपी अमृत का पान करना चाहिए। श्री पंच नमस्कृतिस्तवनम् इसमें पंच नमस्कार-मन्त्र की स्तुति करके इसका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। यह मन्त्र अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट करके संसार के मायाजाल को छिन्न-भिन्न करता है । स्वयम् अष्ट सिद्धियों का धारक यह मन्त्र साधक को अनन्त सिद्धियां प्रदान करता है। राजा आदि अन्य व्यक्ति तो अनुकूल होने पर ही भुक्ति (भोग) देते हैं परन्तु यह मन्त्र उल्टा पढ़ने पर भी मुक्ति देता है। इस अद्भुत राजा की फत्कार (फंक) से ही शत्रु भाग जाते हैं । अणिमा, महिमा आदि सिद्धियां इसमें निहित हैं। इसके प्रयोग से धूलि-कण भी संसार का निर्माण कर लेते हैं। जो नवीन साधक इस मन्त्र का जाप करता है, वह सभी विघ्नों का विनाश करके संसार-सागर को पार कर लेता है और परम शान्ति को प्राप्त करता है। इसके स्मरण से कर्म-ग्रन्थि नष्ट होती है, बिजली, जल, अग्नि, राजा, सर्प, चोर, शत्रु, महामारी आदि के भय दूर हो जाते हैं और इच्छित फल प्राप्त होते हैं। इसकी विधिपूर्वक आराधना करके इसके एक लाख जाप द्वारा उदारबुद्धि व्यक्ति पापों से मक्त होकर 'अर्हत् पद प्राप्त करता है। यह ऐहिक (सांसारिक भोगों) फलों के इच्छुक व्यक्तियों के लिए आठ कर्मों का बन्ध करता है और मोक्षार्थी व्यक्ति के लिए आठों कर्मों का विनाश करता है । यह १४ पूर्वो का पुंज, सम्पूर्ण विद्याओं की आद्य-विद्या तथा बीजाक्षरों का उद्गम है । मृत्यु के समय क्षण भर भी इसका ध्यान करके जीव सुगति प्राप्त करता है। यह मन्त्र चमत्कारी है। इसके प्रभाव से श्रेष्ठिनन्दन ने स्वर्ण-पुरुष की सिद्धि की, महासती सोमा के लिए घड़े में रखा हुआ सांप भी माला बन गया, श्राद्धपुंगव ने मातुलिंग-वन के अमर को नमस्कार-मन्त्र से सम्बोधित करके अपने और दूसरों के प्राण बचाए, हुंडिक यक्ष बन गया, चण्ड पिंगल कुलीन बना और सुदर्शन ने सुदर्शन वन में गुण-गरिमा को प्राप्त किया। यह मन्त्र माता, पिता, गुरु, मित्र, वैद्य है तथा प्राणरक्षक है। इसका प्रभाव वाणी आदि इन्द्रियों द्वारा अवर्णनीय है। नमस्कार-क्रमणिका इसमें भगवान् शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ आदि तीर्थंकरों की वन्दना करके श्रेष्ठ साधुओं, भगवती शारदा और गणधर गौतम को नमस्कार किया गया है। मूलसंघ के भवन को प्रकाशित करने वाले दीपक के समान मुनीश्वर पद्मनंदी जैन-शासन के लिए सूर्य थे। इसी पट्र-परम्परा में श्री जिनचन्द्र, श्री शुभचन्द्र, मुनि सिंहकीर्ति, श्री धर्मकीर्ति, मुनि सुशीलभूषण, मुनि ज्ञानभूषण, मुनि जगभषण तथा मनि श्री विश्वभूषण हुए। मुनि श्री विश्वभूषण तीर्थकर भगवान् सम्भवनाथ की पूजा-प्रतिष्ठा के लिए किसी पवित्र नगर में गए और वहां उन्होंने भगवान् की प्रतिष्ठा कराई। उनके नाम, गुणों तथा पवित्र मन्त्र का स्मरण हम नित्य करते हैं। पचनमस्कारस्तोत्रम् श्री उमास्वामि-कृत इस स्तोत्र में मन्त्रराज 'णमोकार मन्त्र' की वन्दना की गई है। यह मन्त्र कर्मराशि का विनाशक है और संसाररूपी पर्वतों के लिए वज्र के समान है। यह चराचर-जगत् के लिए संजीवन है और स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति में उत्पन्न सभी विघ्नों को दूर करता है। यदि तराजू के एक पलड़े में इस मन्त्र को रखा जाए और दूसरे पलड़े में तीनों लोकों को रखा जाए तो भी इस पंचपरमेष्ठी-मन्त्र का पलड़ा अधिक भारी रहेगा। जो व्यक्ति उठते हुए, चलते हुए, सोते हुए सभी कालों में इसका स्मरण करता है, वह सभी वांछित पदार्थों को प्राप्त करता है। इसके स्मरण से संग्राम, सागर, हाथी, सर्प, सिंह, दुष्ट व्याधियों, अग्नि, शत्रु और बन्धन से उत्पन्न सभी भय (चोर, ग्रहपीडा, निशाचर, शाकिनियां) आदि नष्ट हो जाते हैं । जो साधक भगवान् जिनेन्द्र में हृदय-वृत्तियों को एकाग्र करके अपने ध्येय के प्रति श्रद्धा से पूर्ण होकर वर्ण-क्रमों का स्पष्ट उच्चारण करता है, इस मन्त्र का विधिपूर्वक जाप करता है और एक लाख सुगन्धित पुष्पों से इसकी पूजा करता है, वह तीर्थकर-पद पाता है। हिंसक, मिथ्याभाषी, पराए धन का हर्ता, परस्त्रीगामी तथा घोर पापी जीव भी मृत्यु के समय इस मन्त्र का जाप करके देव-पद प्राप्त कर सकता है । वस्तुतः तीर्थंकरों के मोक्ष-गमन के पश्चात् यही मन्त्र लोकोद्धार के लिए इस संसार में भगवान् जिनेन्द्र के मन्त्रात्मक शरीर के रूप में सुशोभित है। नमस्कार-मन्त्र-स्तवनम् श्रीमानतुंगाचार्य-विरचित इस स्तोत्र में चौबीस तीर्थकरों के रूप में पंचपरमेष्ठियों की वन्दना की गई है। अर्हत् प्रणत-जनों के लिए मोक्ष-पद प्रदान करें। सिद्ध तीनों लोकों को वश में करें। आचार्य जल, अग्नि आदि सोलह विघ्नों का स्तम्भन करें। उपाध्याय सब भयों आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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