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________________ णमोकार-मन्त्र-कल्प -आत्मिक सुख और मोक्ष-लाभ का संदेशवाहक समीक्षक : श्री युगेश जैन सुदूर अतीत से निरन्तर विकासमान श्रमण-संस्कृति-परम्परा के अनुपम रत्न आचार्य श्री १०८ देशभूषण जी महाराज के तपः पूत व्यक्तित्व के चरणों में सभी व्यक्ति अनायास नतमस्तक हो जाते हैं । सरस्वती के वरद् पुत्र आचार्य जी ने संस्कृत, तमिल, कन्नड़ आदि अनेक भारतीय भाषाओं के भक्ति-साहित्य तथा सिद्धान्त-ग्रन्थों को हिन्दी में अनूदित करके उत्तर-दक्षिण भारत के रागात्मक सम्बन्धों की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है । आचार्य जी की पुनीत प्रेरणा से अनेक धर्म-ग्रन्थों का प्रणयन तथा अनुवाद सम्पन्न हुआ है। इन्हीं ग्रन्थों की परम्परा में अन्यतम कृति है-'णमोकार-मन्त्र-कल्प' आद्य वक्तव्य के अनुसार इस संग्रह-ग्रन्थ की एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति ला० मनोहर लाल जौहरी (पहाड़ी धीरज, दिल्ली) ने पूज्य आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज को अवलोकनार्थ दी थी। महाराज जी की प्रेरणा से यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित होकर सर्वसुलभ हो गई है। पुस्तक के आरम्भ में मथुरा-संग्रहालय-स्थित स्तूपद्वार पर विभूषित पंचपरमेष्ठी-मन्त्र का चित्र प्रदर्शित है । अन्यत्र, प्राचीन आयाग-पट्ट के मध्य स्थित मंगल-पाठ का चित्र भी प्रकाशित है। प्रस्तुत संग्रह-ग्रंथ के मुख्य विषय निम्नलिखित हैं । जैन-रक्षा-स्तोत्रम् इस स्तोत्र के २२ पद्यों में चौबीस तीर्थकरों से प्रार्थना की गई है कि वे भक्त के विभिन्न अंगों मस्तक, सिर, नेत्र, नाक, जिह्वा, कान, गरदन, हाथ, हृदय, पेट, नाभि, कमर, जंघा, घुटनों आदि की रक्षा करें। तदनन्तर स्तोत्र-पाठ की विधि बताई गई है और स्तोत्र के महत्त्व का वर्णन किया गया है। द्वितीय जैन-रक्षा-स्तोत्रम् (वज्रपंचरकवचम्) इसमें चीबीस तीर्थंकरों का स्मरण करके उनसे सभी अंगों की रक्षा के लिए प्रार्थना की गई है। इस स्तोत्र का पाठ करने वाला व्यक्ति चिरायु, सुखी तथा आधि-व्याधि-मुक्त होकर विजयी होगा। वह पापों से लिप्त नहीं होता और उसे सभी सिद्धियों, भोगों तथा मुक्ति की प्राप्ति होगी। रक्षा-मन्त्र इसमें आपदा-नाशन-मन्त्र, सर्वरक्षा-मन्त्र, ऋषभ-देव-रक्षा मन्त्र तथा आत्म-रक्षा-मन्त्र दिए गए हैं। पंचपरमेष्ठी स्तोत्रम् आरम्भ में 'पंचपरमेष्ठी-स्तोत्रम्' में पांच परमेष्ठियों का वर्णन किया गया है । पंच महाव्रतों का पालक, तपस्या में लीन, आहार तथा जल में विवेकशील, देह एवं भोगों से विरक्त तथा २८ मूल गुणों का धारक व्यक्ति मुनि कहलाता है। जो स्वयं ११ अंगों और १४ पूर्वो को स्वयं पढ़ते हों और दूसरों को पढ़ाते हों, वे उपाध्याय कहलाते हैं। निर्विकल्प समाधि के धारक तथा आत्मानुभव रूपी अमृत का अवगाहन करने वाले साधक आचार्य विवेक की अंजलि द्वारा ज्ञान का आस्वादन करते हैं। घाति कर्मों का क्षय करके अघाति कर्मों को जली हुई रस्सी के समान करने वाले तथा ४६ गुणों से युक्त महापुरुष 'अर्हत्' कहलाते हैं तथा वे सम्यक्त्वादि अष्टगुणों से युक्त होकर संसार के आवागमन से मुक्त हो जाते हैं और सिद्ध-पद प्राप्त करते हैं। सृजन-संकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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