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________________ विघ्न दूर हो जाते हैं, ग्रह, व्यन्तर, शाकिनी आदि दुष्ट देवता उपद्रव नहीं कर सकते, नाग, व्याघ्र हाथी आदि की लित हो जाते हैं, सभी उपसर्ग तथा रोग क्षण-मात्र में नष्ट हो जाते हैं और क्रूर जीव भी अपनी क्रूरता छोड़ देते हैं। इस कारण सुख-दुःख, मार्ग, दुर्ग, युद्धभूमि आदि में सभी कालों और स्थानों में हजारों, लाखों, और करोड़ों की संख्या में "णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणम्, णमो उवज्झायाणं, णमोलोए, सव्व साहूणं"--इस मंत्र का जाप करना चाहिए। अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः उपर्युक्त महाविद्या पंचपरमेष्ठियों के नाम से निष्पन्न, सोलह अक्षरों से सुशोभित तथा समस्त प्रयोजनों की सिद्धि के लिए जगद्विद्या है। दो सौ बार इसका एकाग्र ध्यान करके मनुष्य को उपवास का फल (न चाहने पर भी) प्राप्त होता है। 'अरहंत-सिद्ध' छः वर्गों से उत्पन्न इस विद्या का ध्यानी लोग सदा ध्यान करें। मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक इस विद्या के तीन सौ बार जाप से संवरपूर्वक उपवास का फल मिलता है। “ॐ ह्रां ह्रीं ह्र हों ह्रः अ-सि-आ-उ-सा नम:” उपर्युक्त विद्या पंचपरमेष्ठियों के नाम के प्रथमाक्षरों से निष्पन्न तथा ह्रांकार आदि पांच महातत्त्वों एवं ॐ कार से उपलक्षित है। जो मनुष्य इस विद्या का चार सौ बार जप करता है, वह एक उपवास का फल पाता है। इससे मनुष्यों के कर्म-बन्धनों सहित जन्म-मरण तथा वृद्धावस्था आदि नष्ट हो जाते हैं। चत्तारि मंगलं । अरिहंता मंगलं । सिद्धा मंगलं । साहू मंगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ।। चत्तारि लोगुत्तमा । अरिहंता लोगुत्तमा। सिद्धा लोगुत्तमा। साहू लोगुत्तमा । केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पवज्जामि । अरिहंते सरणं पवज्जामि । सिद्धे सरणं पवज्जामि। साहू सरणं पवज्जामि। केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि। उपर्युक्त 'चत्तारि मंगल' मन्त्र के ध्यान से प्रत्येक पग पर मंगल का उदय होता है, तीनों लोकों की सम्पदा एवं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी चारों पुरुषार्थ प्राप्त होते हैं और सभी विपत्तियां नष्ट हो जाती हैं। ॐ अरहन्त-सिद्ध-सयोगिकेवली स्वाहा उपर्युक्त विद्या अर्हन्त, सिद्ध और सयोगी केवलियों के अक्षर से उत्पन्न और पन्द्रह सुन्दर वर्णों से सुशोभित है। गुणस्थान की प्राप्ति के लिए इस विद्या का ध्यान करना चाहिए। मुक्ति के महल में शीघ्र पहुंचने के लिए यह सीढ़ियों के समान है । "ॐ ह्रीं अहँ नमः" यह मन्त्र सम्पूर्ण ज्ञान और सुखों का साम्राज्य देने में कुशल है और सभी मन्त्रों में चूड़ामणि है। मोक्ष-प्राप्ति के लिए णमो सिद्धाणं' मन्त्र का निरन्तर जाप करना चाहिए। यह सम्पूर्ण कर्म-कलंक समूह रूपी अन्धकार के विनाश के लिए सूर्य के समान है। "ॐ नमोऽर्हते केवलिने परमयोगिने अनन्त विशुद्ध परिणाम विस्फुरच्छुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानन्तचतुष्टयाय सौम्याय शान्ताय मंगलवरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा।" उपर्युक्त मन्त्र के जाप से तीर्थंकर भगवान् की सम्पत्तियां तथा सुख क्रमशः प्राप्त हो जाते हैं । यह मन्त्रराज सम्पूर्ण क्लेश रूपी अग्नि के लिए मेघ के समान है, भोग और मोक्ष देता है और भव्य प्राणियों की रक्षा करता है। "ॐ नमो अरहंताणं । ह्रीं" इस मन्त्र के विधिपूर्वक जाप से संसार के सभी संकट तथा पाप दूर हो जाते हैं। __ इसी प्रकार 'झ्वी', णमो अरहंताणं', 'ऊँ अह', श्रीमद्वृषभादि वर्धमानान्तेभ्यो नमः ।" 'नमः सर्वसिद्धेभ्यः' आदि विविध मन्त्रों के जप की विधियों और महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। पंचनमस्कृति-दीपक-सन्दर्भ । श्री सिंहनन्दि-भट्टारक-विरचित इस प्रकरण में सर्वप्रथम देवाधिदेव भगवान् जिनेन्द्र तथा णमोकार-मन्त्र की वन्दना की गई है। भगवान जिनेन्द्र ने कर्म-रूपी ईंधन के धुएँ को नष्ट कर दिया है, सम्पूर्ण लक्ष्मी उनमें स्वयं सुशोभित होती है, इन्द्रादि के द्वारा भी उनका प्रभाव अवर्णनीय है, उनके स्मरण-मात्र से विघ्न, चोर, शत्रु, महामारी, शाकिनी आदि सभी नष्ट हो जाते हैं । तदनन्तर णमोकार-मन्त्र-कल्प का वर्णन किया गया है। णमोकार-मन्त्र के पांच अधिकार हैं-साधन, ध्यान, कर्म, स्तवन तथा फल। यही गायत्री मन्त्र, अष्टक तथा पंचक आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। दुष्ट और मिथ्यादृष्टि मनुष्यों को इसे नहीं देना चाहिए। पार्श्वचक्र, वीर-चक्र, सिद्ध-चक्र, त्रिलोक-चक्र, कर्म-चक्र, योग-चक्र, ध्यान-चक्र, भूत-चक्र, तीर्थचक्र, जिन-चक्र, मोक्ष-चक्र, श्रेयश्चक्र, वृद्धमृत्युंजयचक्र, लघुमृत्युंजयचक्र, ज्वालिनी-चक्र, अम्बिका-चक्र, चक्रेश्वरीचक्र, शान्ति-चक्र, यज्ञ-चक्र, भैरव-चक्र आदि कई चक्र नमस्कार मन्त्र की सिद्धि के बिना सिद्ध नहीं होते। अतः सर्वप्रथम इसी मन्त्रराज को सिद्ध करना चाहिए। ७२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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