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पुत्र-पिता, पुत्र-माता आदि मानवीय सम्बन्धों की गुत्थियों में वह उलझ जाता है। गुरु शिरोमणि इस सांसारिक बंधनों की निस्सारता का उपदेश कर उसे मानसिक थपेड़ों के सागर से पार उतार ले जाता है।
शिष्य का सहज प्रश्न है- "हे गुरुदेव ! इस जीव को मनुष्य जन्म किस पुण्य के उदय से प्राप्त होता है ?"
गुरु उत्तर देता है—"हे भव्य शिरोमणि ! जिस जीव ने पर भव में सरल भाव रखा हो, किसी जीव के प्रति द्वेष भावना न रखी हो, मन्द कषाय वाला हो, धर्म भावना सहित भद्र परिणामी हो, इत्यादि भावना से इस जीव को मनुष्य पर्याय मिलता है।"
"हे गुरुदेव ! यह जीव नरक में किस पाप के उदय से जाता है ?"
"हे भव्य ! जिस जीव ने पर भव में अनेक जीवों को सताया हो, क्रोध किया हो, जीव को दुःख दिया हो, मन में मारने की भावना की हो, अभक्ष्य भक्षण किया हो, धर्मभावना से रहित हो, पाप भावना सहित हो, धर्म से द्वेष किया गया हो, धर्मात्मा को देखकर ग्लानि या उनका तिस्कार किया हो, इत्यादि पाप के उदय से यह जीव नरक में जाता है।"
जीवात्मा-परमात्मा का चिंतन निरन्तर चलता है। जीवन के उभय पक्षों को प्रस्तुत करने वाला यह लघु ग्रन्थ कोई मामूली ग्रन्थ नहीं है। सामान्य जीवन से जुड़ी अनेकों भ्रान्तियों और जिज्ञासाओं को शान्त कर गुरु शिष्य को मोक्ष-मार्ग की ओर अग्रसर कर देता है। इससे अधिक जीवन की सार्थकता और हो भी क्या सकती है।
सरल बोलचाल की भाषा और प्रश्नोत्तर शैली में लिखी यह कृति अनुपम है। जिस सजीवता से प्रश्नों का समाधान इस कृति में किया गया है वह अपढ़ से अपढ़ व्यक्ति के लिए भी बोधगम्य है। यह उपलब्धि कम महत्त्व की नहीं है, जबकि देश में साक्षरता नाममात्र की हो। मानव-जीवन के अनन्त उलझे प्रश्नों व शंकाओं को प्रस्तुत करने वाला यह लघुग्रन्थ वस्तुतः एक मानसिक तृप्ति है। आध्यात्मिक-भोजन से भरपूर यह उसी प्रकार शान्ति देता है जैसे मरुप्रदेश में भटकते भूखे-प्यासे किसी पथिक को अनायास जल प्राप्त हो जाए। इसीलिए यह अमूल्य, संग्रहणीय एवं ऐतिहासिक महत्त्व का है।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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