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________________ गुरु-शिष्य प्रश्नोत्तरी –शंकाओं का सहज समाधान समीक्षक : डॉ. सुरेश गौतम दिगम्बरत्व की शीर्षमणि, मानव की ऊर्ध्वमुखी चेतना के प्रतीक, चिरन्तन मानवीय मूल्यों के अक्षय महाकाव्य, अध्यात्म पुरुष, मनस्वी चिन्तक, तपोनिष्ठ बालब्रह्मचारी, ज्योतिपुरुष १०८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अलौकिक प्रतिभा के धनी हैं। जैन धर्म के अभ्युदयकर्ता इस पुण्यात्मा का श्री मुख सदैव स्वगिक शान्ति और तेज से दैदीप्यमान रहता है। पारस मस्तिष्क के इस अद्भुत व्यक्तित्व ने भारतीय सभ्यता-संस्कृति के साथ-साथ सम्पूर्ण वाड. मय का गंभीर एवं मर्मज्ञ दृष्टि से मंथन किया है । भविष्य के प्रति आस्थावादी मूल्यों को निर्भीकता देने वाले इस अनासक्त कर्मयोगी का व्यक्तित्व मानव-कल्याण के लिए समर्पित है। बहुभाषाविज्ञ इस तपोमुनि ने भारतीय साहित्य और लोक के भौतिक प्रश्नों को गहरे जा कर छुआ है। भारतीय अध्यात्म दर्शन के मरुप्रदेश में भटकता सामान्य जन इस बहुभाषी तपस्वी की कृपा और कठोर परिश्रम से ही उसका रसास्वादन कर सका है। संस्कृत, कन्नड़, तमिल, बंगला, गुजराती आदि भाषाओं के भक्ति साहित्य को हिन्दी में और हिन्दी के भक्ति साहित्य को अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित कर इस मनीषी ने साहित्यिक-क्षेत्र में भी क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। लेकिन इस बिगुल में युद्ध का शंखनाद नहीं, अपितु मानव-मात्र के लिए अहिंसा और शान्ति का संजीवन रस था जिसको पाने के लिए मानव सदैव तरसा-भटका है। 'गुरु-शिष्य प्रश्नोत्तरी' आचार्यचूड़ामणि, धर्मध्वजा रक्षक १०८ श्री देशभूषण जी महाराज विरचित एक ऐसा लघुग्रन्थ है जिसमें जीवन को निकट से जानने, उसका सदुपयोग कर सार्थक करने के लिए शिष्य ने गुरु से लोकव्यवहार और अध्यात्म के सामान्य और गम्भीर दोनों ही तरह के प्रश्न किए हैं और गुरु ने गम्भीर चिन्तन कर अपनी अमृतवाणी द्वारा शिष्य की जिज्ञासाओं का सार्थक समाधान किया है। जीवन में गुरु का सर्वोच्च स्थान है और शिष्य की जिज्ञासाएं अनन्त । उन जिज्ञासाओं-शंकाओं का शमन समर्थ और सच्चा गुरु ही कर सकता है । सन्त कबीर ने कहा भी है-- "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पायें। बलिहारी गुरु आप जिन गोविन्द दियो बताय ।।" मोक्ष-प्राप्ति अथवा आत्म-प्राप्ति मार्ग बिना गुरु के प्राप्त नहीं होता। इसलिए कल्याण-मार्ग से यदि जीवन प्राप्त करना है तो गुरु के प्रति आत्मिक असीम श्रद्धा और गुरु का समर्थ और सच्चा होना जीवन की अनिवार्यता है। चर्चित ग्रन्थ में मूढ़ बुद्धि शिष्य गुरु के सामने अपनी प्रश्नात्मक जिज्ञासाएँ रखता है और आचार्य श्री गुरु के रूप में उनका शमन करते हैं। इस ग्रन्थ में शिष्य द्वारा कुल १०३ प्रश्न पूछे गए हैं। पाप-पुण्य पर गम्भीर चिंतन है। लौकिक प्रश्नों में निर्धनता, पुत्र-प्राप्ति, कपूत-पुत्र संयोग, पूर्व जन्म से सम्बन्धित अनेक जिज्ञासाएं, कुमार्गगामी होना, माता-पिता से दुर्व्यवहार, सुपुत्री लाभ, खोटी-खरी स्त्री से समागम के कारण अपमान, कीर्ति, सुख-दुख, रोग-निरोग के प्रति शिष्य की जिज्ञासाएं जितनी स्वाभाविकता के साथ कही गई हैं उससे कहीं अधिक स्वाभाविक और गम्भीर विश्लेषण करते हुए गुरु के प्रभावशाली उत्तर हैं। संयम-नियम, लक्ष्मी, धर्म-अधर्म, निर्बल-सबल, भय-अभय की स्थिति जानने की बेचैनी जीव को इस संसार में त्रस्त रखती है लेकिन गुरु के श्री मुख से उच्चरित उपदेश चंदन लेप बनकर उसकी संतप्त आत्मा पर लग जाता है। वह अनुभव करता है कि निस्सन्देह इस हांड़-मांस के बने जगत् में गुरु की अमृत-वाणी जीवन के दिशासूचक यन्त्र का काम करती है। शिष्य सभी जिज्ञासाओं व प्रश्नों का उत्तर एकदम खोज लेना चाहता है। गुरु के समक्ष पुनः प्रश्नों की झड़ी लग जाती है । वह उद्विग्न है जानने को पराधीनता, भाग्यहीनता, कुरूपता आदि किस पाप का फल है और गुरु जीवन के निचोड़ का मूलमन्त्र देता है— "वत्स ! पूर्व भव के पाप के उदय से होता है यह सब।" शिष्य की उत्कण्ठाएं फिर भी शान्त नहीं होती। भाई-बहन, पति-पत्नी, मां-बाप, बेटी-बाप, सृजन-संकल्प ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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