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________________ उपदेश सार-संग्रह समीक्षक डॉ० भरत सिंह यद्यपि परम पूज्य स्वामी देशभूषण जी महाराज के देहली चातुर्मास के अवसर पर दिए गए दैनिक प्रवचनों के संग्रह ग्रन्थ "उपदेश सार संग्रह' पर समीक्षा लिखने का न तो साहस मुझ में है और न मैं इस काम के योग्य पात्र हूं, फिर भी मुनिवर की अनुपम लोक-सेवा तथा बन्धुवर डॉ० रमेश गुप्त का स्नेहपूर्ण आग्रह मुझे इस परमोपयोगी कार्य के लिए बाध्य कर रहा है। आज जब हम नितान्त अर्थप्रधान युग में जीवनयापन कर रहे हैं; प्रत्येक व्यक्ति का एकमात्र लक्ष्य असीमित धन-दौलत एकत्र कर मनोवाञ्छित सुख भोगना रह गया है। व्यक्ति कर्त्तव्यों को भूलकर अधिकारों की पूर्ति के लिए नारों, जुलूसों तथा प्रदर्शनों के भंवर जाल में फंस को गया है। राष्ट्र अनाचार भ्रष्टाचार, धर्मवाद, जातिवाद और इसी प्रकार की अन्य अनेक बुराइयों में लीन हो गया है। अब जब कि राष्ट्र एक निश्चित दिशा की ओर ले जाने वाले चरित्रवान् नेताओं का नितान्त अभाव हो, सुविचारक तपी त्यागी साधु-संन्यासियों का अकाल पड़ा हो, समाजसेवी सज्जन समाज सेवा की आड़ में केवल अपना स्वार्थ साधन अपनी समाज सेवा का मुख्य अंग मानते हों, ऐसे में इस प्रकार के प्रवचनों की महती आवश्यकता प्रतीत होने लगती है। इस निराशा और निविड़ अन्धकारपूर्ण समय में यदि एकमात्र आशा की किरण कहीं नजर आती है, तो इसी प्रकार के सद्प्रयासों में । श्री १०८ स्वामी देशभूषण जी महाराज बालब्रह्मचारी हैं और उन्होंने अपना सारा जीवन प्रथम जैन धर्म की शिक्षा-दीक्षा को प्राप्त करने तथा तत्पश्चात् उसके प्रचार-प्रसार के लिए धर्म को समर्पित कर दिया है। निश्चय ही यह बहुत बड़ा त्याग है । जो मनुष्य जीवन इतनी अनन्त साधना के पश्चात् उपलब्ध होता है और जिसमें सामान्य इंसान दुनिया के समस्त भोगों को भोग लेना चाहता है, उस जीवन को निःस्वार्थ भाव से समाज के उद्धार तथा धर्म की अभिवृद्धि को सौंप देना निश्चय ही एक प्रशस्य कदम है। अपने वरेण्य जीवन में आचार्य श्री ने न जाने कितने प्रवचन दिये होंगे और न जाने कितने व्यक्तियों को उनको सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ होगा लेकिन जैसाकि आज के समाज को देखकर प्रतीत होता है व्यक्ति उपदेश-सभा में प्रवचनों को सुनने का प्रयास तो करते हैं, परन्तु उन्हें आत्मसात् कर व्यवहार में उतारने का प्रयास नहीं करते । घर आकर उसी प्रकार नाना प्रकार के छल-प्रपंचों में व्यस्त हो जाते हैं, जिस प्रकार के प्रपंचों में वे इन उपदेशों को सुनने से पहले थे। इससे प्रतीत होता है कि वे प्रवचन -सभाओं में अपने आपको इतना ध्यानावस्थित नहीं कर पाते, जितना कि उन्हें करना चाहिए और इसीलिए इन प्रवचनों का उनके व्यावहारिक जीवन पर विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो पाता । बहुत-से व्यक्ति तो इन सभाओं में खाना पूर्ति करने अथवा अन्यों की दृष्टि में अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के निमित्त ही जाते हैं, वहां से कुछ उपयोगी बात ग्रहण कर जीवन को अधिक उदात्त बनाने का प्रयास उनका नहीं रहता। ऐसा इसलिए लिखा जा रहा है कि आज समाज में पूजा-पाठ, धर्म-कर्म, भक्ति-भाव और इसी प्रकार के अन्य विचारों का ढोंग उन व्यक्तियों में अधिक पाया जाता है, जो समाज में ऐसा मिथ्या प्रदर्शन न करने वाले सात्विक-सामाजिकों की अपेक्षा अधिक निन्दनीय जीवन जी रहे हैं। यही एक ऐसा कारण भी है जिससे प्रभावित होकर लोग उक्त सद्भावों से विरक्त होते जा रहे हैं। - दिल्ली चातुर्मास के अपूर्व प्रवचन आचार्य देशभूषण जी ने अपने पूर्ण प्रयास से सुन्दर प्रवचन दिये, लेकिन उन सद्विचारों को यदि संग्रह नहीं किया गया होता तो उनका लाभ केवल वे ही श्रोतागण उठा सकते जो निश्चय ही सभा में कुछ ग्रहण करने के पुनीत भाव से प्रेरित होकर वहां विराजमान रहे। किन्तु उनके प्रवचनों को संग्रह करने का प्रयास अनेकानेक धर्म प्रेमियों को लाभान्वित कर सकेगा इसमें सन्देह नहीं प्रार्थना सभाओं में सुने गये प्रवचनों की अपेक्षा अपने अध्ययन कक्ष में एकाग्रभाव से पढ़े गये और मनन किये गये इन पुस्तकाकार उपदेशों का लाभ निश्चय ही अधिक है। क्योंकि अपने बन्द कमरे में बैठकर इस अमूल्य ग्रन्थ का अध्ययन वही व्यक्ति करना चाहेगा जो निश्चित रूप से इससे लाभान्वित होना चाहता है । अतः बहुमूल्य विचारों को पुस्तक- बद्ध करने का विचार एक बहुपयोगी उत्तम विचार है। स्वयं मुझे इन विचारों से लाभ उठाने का अवसर इसीलिए मिल पाया है कि ये लिपिबद्ध उपदेश पुस्तक के रूप में मुझे पढ़ने को प्राप्त हो सके हैं। पुस्तक के रूप में निबद्ध ये सद् आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ ५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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