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________________ उपदेश अब समाज की एक बहुमूल्य थाती बन गये हैं और अनन्त काल तक ज्ञानपिपासुओं की धार्मिक भावना, चरित्र निर्माण तथा समाजोद्धार के विचारों को प्रेरित करते रहेंगे। "उपदेश सार संग्रह " के पारायण के पश्चात् प्रतीत होता है कि श्री देशभूषण जी महाराज के पास ज्ञान का अनन्त सागर है । समाज के संस्कार की ललक उनके पास है। अपने विचारों को पूर्णता प्रदान करने के लिए उन्होंने वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन किया है। संस्कृत ग्रन्थों को पढ़ा है । इसी प्रकार जैन धर्म सम्बन्धी प्राकृत-पाली साहित्य का उन्होंने मनन किया है। हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल से सम्बद्ध श्रेष्ठ सन्तों की अमूल्य वाणी के मूल में पहुंचने का भी उन्होंने अथक प्रयास किया है। इस तमाम साहित्य का उन्होंने आलोड़न बिलोन ही नहीं किया अपितु उसे भलीभांति मथ कर वे उसमें से जीवनोपयोगी अनेकों बहुमूल्य भावमणियां अपने श्रोताओं के उद्धार के लिए खोज लाये हैं । उन्होंने उक्त साहित्य को पड़ा ही नहीं, अपितु पचाया भी है। यही कारण है कि वे अपने विचारों को श्रोताओं तक पहुंचा पाने में समर्थ हुए हैं। इस ग्रन्थ का क्षेत्र अनन्त है । इसमें आत्मा-परमात्मा, धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, जप-तप, भक्ति भाव जैसे आध्यात्मिक विषयों को तो सहज बोधगम्य करने का प्रयास किया ही गया है, साथ ही समाज में व्याप्त व्यक्ति तथा समाजगत बुराइयों की ओर भी श्रोताओं का ध्यान आकर्षित किया गया है। आचार्य श्री चाहते हैं कि व्यक्ति का इहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के जीवन का विकास हो। इसीलिए उन्होंने अपने प्रवचनों में कुलाचार को महत्त्व दिया है। जैन धर्मी होने के कारण मद्य, मांस, अण्डा आदि का सेवन न करने की प्रेरणा सामाजिकों को दी है। व्यापार में भ्रष्टाचार करने वाले जैनियों की निन्दा की है। अन्न ही से मन बनता है। अतः उत्तम सात्विक और पौष्टिक भोज्य सामग्री को ग्रहण करने की प्रेरणा उन्होंने दी है। जीवन में सद्गुरु का महत्त्व प्रायः प्रत्येक सद्विचारक ने स्वीकारा है । प्रस्तुत ग्रन्थ में भी गुरु के महत्त्व को प्रमुखता प्रदान की गई है । इस ग्रन्थ के पृष्ठ १०८ पर लिखा है- "यह बात प्रत्येक कला तथा ज्ञान पर लागू होती है बिना गुरु के सिखाये कोई भी विद्या या कला नहीं आती ।" समाज को दूषित करने वाले वामाचार की इन उपदेशों में कठोर निन्दा की गई है पृ० (३७) । पश्चिमी देशवासी जिस मांस को अनन्त शक्ति का स्रोत मानते हैं और इसे प्राप्त करने के लिए वे जिस प्रकार से अनेकानेक प्रकार के पशुओं का वध करते हैं, इसकी निन्दा भी इस ग्रन्थ में की गई है। साथ में यह भी सिद्ध किया गया है कि मांसाहारी भोजन की अपेक्षा शाकाहारी भोजन अधिक पौष्टिक एवं बलप्रद होता है । " इस तरह मांस से तिगुनी शक्ति अन्न में होती है" यह बात पृष्ठ ३६ पर कही गई है। आचार्यरत्न देशभूषण जी की मान्यता है कि चारित्रिक उत्थान के लिए भी मांस जैसे भोज्य पदार्थों का त्याग आवश्यक है । आज के प्रदर्शन- प्रिय ढोंग भरे इस समाज को ध्यान में रखते हुए आचार्य श्री का यह कथन कितना उपयुक्त है- "संसार में इस जीव का सबसे बड़ा शत्रु कोई पुरुष, स्त्री, पशु या कोई दृश्यमान जड़ पदार्थ नहीं है । इसका सबसे बड़ा वैरी तो एक मिथ्यात्व है जिसके प्रभाव से जीव की श्रद्धा विपरीत हो गई है।" इसी के कारण मनुष्य पूर्ण रूप से न अपने को पहचान पा रहा है और न पर को। ऐसे में परमात्मा को पहचान पाने की तो बात ही नहीं उठती । व्यक्ति की व्यावहारिक शुद्धता पर भी इन उपदेशों में बल दिया गया है। जैन समाज अधिकतर व्यवसाय पर अवलम्बित है। व्यापार में शुद्ध एवं अशुद्ध कमाई का बड़ा प्रचलन है। जो व्यापारी अशुद्ध कमाई करते हैं उन्हें अपार सम्पत्ति के स्वायत्य हो जाने पर भी सच्ची सुख-शान्ति नहीं मिल पाती। पृ० ८२ पर वे कहते हैं- “धन उपार्जन में इस तरह से अनीति, धोखेबाजी, विश्वासघात, बेईमानी का आश्रय लिया जाता है तभी आजकल पहले की अपेक्षा अधिक समागम होने पर भी लोगों की सम्पत्ति, सुख-शान्ति में, स्वास्थ्य में पारिवारिक अभ्युदय में उल्लेख करने योग्य प्रगति नहीं दिखाई देती । प्रायः प्रत्येक गृहस्थ किसी-न-किसी विपत्ति का शिकार बना हुआ है। एक ओर से धन आ रहा है. दूसरी ओर से चोरी, डकैती, मुकद्दमेबाजी बीमारी, सन्तान द्वारा अपव्यय आदि मार्गों से धन निकला जा रहा है। जिस उपार्जन के लिए दुनिया भर के पाप अनर्थ अन्याय किए जाते हैं, अपमान सहन किया जाता है, वही धन दो-चार पीढ़ी तक भी नहीं ठहरने पाता ।" आज भारतीय समाज में जितना भी भ्रष्टाचार व्याप्त है उसका मूल कारण आचार्य श्री ने अतिशय अर्थलोलुपता को ही माना है। उनका यह मन्तव्य है कि जिस दिन व्यक्ति इस लोभ का परित्याग कर देगा, निश्चय ही उस दिन व्यक्ति एवं समाज दोनों का उद्धार हो जायेगा । व्यक्तिगत राग-द्वेष तथा स्वार्थपरता की गहित भावना का भी खण्डन किया गया है। वे कहते हैं-"आत्मा को राग, द्वेष, क्रोध, काम आदि भावों से शुद्ध करना ही आत्मा का सबसे बड़ा हित है क्योंकि कर्म बन्धन से मुक्त होने का यही एक मार्ग है। " - पृ०१२१ । स्वामी जी ने इस संसार में विद्यमान समस्त पदार्थों में आत्मा को सर्वोपरि सिद्ध किया है। अतः उसी का उद्धार करना प्राणी मात्र का परम कर्त्तव्य है। तभी व्यक्ति सांसारिक चक्र से भी मुक्त हो सकता है। समाज के प्रति अपना दायित्व ध्यान में रखते हुए आचार्यरत्न देशभूषण जी ने समाज में व्याप्त नाना प्रकार की बुराइयों के प्रति भी सामाजिकों का ध्यान आकर्षित किया है। समाज जिन चोरी-डकैती, हिंसा, जुआ, शराब एवं दहेज जैसी कुरीतियों से ग्रसित है, उनके उन्मूलन के प्रति भी वे सजग हैं। कन्या के लिए योग्य वर को ध्यान में रखते हुए वे कहते हैं —— कन्या के योग्य गुणी, स्वस्थ, सदाचारी वर को प्रमुख रूप से देखा जावे, केवल धन देखकर दुर्गुणी, रोगी, अशिक्षित, दुर्जन, प्रौढ़, वृद्ध सृजन-संकल्प Jain Education International For Private & Personal Use Only ५५. www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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