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को 'क्षणमात्र' में भस्म करने की विद्याओं को पार्श्वनाथ तीर्थंकर के गणित से समझने का आदेश है। आगे आकाशगमन सिद्धि का उल्लेख है। इसके लिए उन २४ वृक्षों की जिनकी छाया को तीर्थंकरों ने अपने तप से पवित्र किया था, नामावली गिना कर सबको अशोक संज्ञा दी गई है
और बताया गया है ‘इन वृक्षों के पुष्प जब खिल जाते हैं तब उनमें से निकलने वाली सुगंध की वायु का शरीर से स्पर्श होते ही शरीर के सभी बाह्य रोग नष्ट होते हैं । सुगंध के सूंघने से मन के रोगों का नाश होता है। ऐसा होने से इन फूलों को पीस कर निकले हुए पारे के रस से बनाये हुआ रस मणि के उपभोग से आकाश गमन अर्थात् खेचर नाम ऋद्धि प्राप्त होने में क्या आश्चर्य है । अर्थात् कुछ भी आश्चर्य नहीं है।'
तेरहवें अध्याय में अढाई द्वीप वाले भारतवर्ष के मध्यप्रदेशीय लाड देश के परमेष्ठी आगमानुसार तपस्या करने वाले साधुओं की सिद्धि का वर्णन है। उन साधुओं को ज्ञान-मद से मुक्त बताया गया है और उनके अनेकानेक गुणों का व्याख्यान हुआ है। उन्तालीसवें छन्द में ऐसे मुनियों को महर्षि संज्ञा दी गई है और भक्ति भावना से यह कामना करने का उपदेश है कि उनके पद हमको भी प्राप्त हों। इसी उदात्त भाव का यह भूवलय दयामय रूप है।
स्वर अक्षरों में कु चौदहवां अक्षर है। इसी अक्षर के नाम से आचार्य ने चौदहवें अध्याय को 'कु' नाम दिया है । इसमें अनेक सिद्ध मुनियों तथा उनकी ऐसी सिद्धियों का उल्लेख है जिनके कारण उनके थूक, लार, पसीने तथा कान, आंख, दन्त एवं मल के छुने मात्र से शरीर के समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं । ये वर्णन कवि की अतिशय श्रद्धा के परिणाम प्रतीत होते हैं। उनका कहना है- 'ऐसे ऋद्धिधारक मुनि जिस वन में रहते हैं, उनके प्रभाव से उस वन की वनस्पतियां (वृक्ष, बेल, पौधे आदि) के फल-फूल पत्ते, जड़, छाल भी महान् गुणकारी एवं रोगनाशक हो जाते हैं (११५) । ऐसे रोगनाशक १८००० पुष्पों से बने पुष्पायुर्वेद का उल्लेख है जिससे अनेक चमत्कारिक योग बनते हैं जैसे पाद रस इस रस को तलुवों में मलने से योजनों तक शीघ्र चले जाने की शक्ति आ जाती है। यहीं पर मांस मदिरामय, चरकादि, हिंसा आयुर्वेद को धिक्कारा है और अहिंसामय आयुर्वेद के निर्माणकर्ताओं की उत्पत्ति के अयोध्या, कोशाम्बी, चन्दपुरी आदि नगरों की सूची दी है। और चूंकि अहिंसामय आयुर्वेद तीर्थंकरों की वाणी से प्रकट हुआ है अतः तीर्थंकरों के कुलों की सूची तथा उनकी माताओं की सूची दी गई है। उन्होंने बताया है कि 'श्री जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट आयुर्वेद स्वपर कल्याणार्थ सभी को पढ़ना चाहिए। श्री पूज्यपाद आचार्य ने आयुर्वेदिक कल्याणकारक ग्रंथ द्वारा सिद्ध रसायन को काव्य निबद्ध किया, उसी का मैंने (श्री कुमुदेन्दु ने) भूवलय के रूप में अंक निबद्ध करके रोग मुक्ति का द्वार खोल दिया है।'
प्रस्तुत जिल्द में संगृहीत १४ अध्यायों के अनुवाद पर दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि ग्रंथ का कथ्य अद्भुत है। उसमें धर्म, दर्शन, नीति, विज्ञान, आयुर्वेद, गणित तथा अतिविद्या अथवा पराविज्ञान सम्बन्धी ज्ञान संग्रहीत है। इस ज्ञान को कुमुदेन्दु आचार्य ने नीरस नहीं अपितु काव्यात्मक रूप प्रदान करने का प्रयत्न किया है। कहीं व्याख्यात्मक शैली है तो कहीं सूत्रात्मक; कहीं आलंकारिक शैली का आश्रय लिया गया है तो कहीं कथात्मक शैली का । व्याख्यात्मक शैली कवि को विशेष प्रिय है। अनन्त, ओउम् भूवलय, योग, योगी, भाषा, मोक्ष आदि की विस्तृत एवं अनेक प्रकार से अनेक बार व्याख्या की गई है। मोक्ष को कामिनी, तथा जैनधर्म को विषयुक्त समाज के लिए गारुड़ मणि कहकर अलंकारिक चमत्कार उत्पन्न किया गया है (१० ५२) । अलंकारों के साथ ही कानड़ी भाषा के सांगत्य छन्द ने कितना मार्दव उत्पन्न किया होगा उसका आस्वाद तो कानड़ी विद्वान् ही ले सकते हैं परन्तु उसकी कल्पना अवश्य की जा सकती है। चक्रबन्ध, हंसबन्ध, नवमांक बन्ध तथा अंक बन्धादि गणितीय पद्धति द्वारा ज्ञान कथन विशेष महत्त्व की बात है। दार्शनिक ज्ञान की दृष्टि से तो इसे पढ़कर गीता याद हो आती है। यह भी उल्लेखनीय है कि भूवलय में कई गीताओं का उल्लेख है। कुमुदेन्दु आचार्य ने भूवलय में जो गीता संकलित की है, वह महाभारत से पूर्व के लुप्त हुए 'भारत जयाख्यान' काव्य से उद्धृत है। उसका अन्तिम श्लोक निम्नलिखित है
चिदानन्बधने कृष्णेनोक्ता स्वमुखतोऽर्जुनम् ।
वेदत्रयी परानन्दतत्वार्थ ऋषि मण्डलम् ।। यह भी ध्यातव्य है कि कुमुदेन्दु जी ने स्वयं कृष्ण रूप हो, अर्जुन रूपी राजा अमोघवर्ष को उसी गीतात्मक शैली में उपदेश दिया है। यह भी अंकमयी गणितीय भाषा में है। इस जिल्द में तो वैसे भी १४ अध्यायों का ही अनुवाद है जिसके लिए मूलतः स्व. विद्वान् अनुवादक स्व० एलप्पा शास्त्री तथा विद्यावारिधि देशभूषण जी महाराज समस्त ज्ञान प्रेमियों के साधुवादाह तथा प्रणम्य हैं । उनकी सरस्वती साधना हमारा अवश्य ही कल्याण करेगी। आचार्य कुमुदेन्दु ने भी द्वितीय अध्याय के मध्यवर्णी अक्षरों द्वारा निकलने वाले संस्कृत श्लोक में यही कामना की है कि अविरल शब्द समुदाय स्वरूपा, मुनिजन उपास्या, समस्त जगत् कलंक को धो देने वाली तीर्थ रूपी सरस्वती (जिन वाणी) हमारे पापों का क्षय करे
अविरलशब्दघनौघ प्रक्षालित सकल भूतल मल व लंका। मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतुनो हुरितान ।।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महागज अभिनन्दन ग्रन्थ
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