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सिरि भूवलय
- अंकलिपि में लिखित विश्व का एकमात्र सर्वभाषामय काव्य
समीक्षक : अनुपम जैन
समीक्ष्य ग्रंथ श्री भूवलय महान् दिगम्बर जैनाचार्य धवला टीका के रचयिता आचार्य वीरसेन के प्रमुख शिष्य आचार्य कुमुदेन्दु द्वारा लिखा गया है। आचार्य कुमुदेन्दु राष्ट्रकूट वंशीय नप अमोघ वर्ष एवं गगनरेश शिवमार के धर्म प्रचारकों के गुरु थे। भूवलय के अन्तःसाक्ष्यों एवं अन्य स्रोतों से यह स्पष्ट है कि आप बंगलौर से लगभग ६० किमी दूर नंदी हिल के पास यलव नामक ग्राम में रहते थे। आपने विश्व के महान् ज्ञान एवं संभवतः समस्त भाषाओं को समाहित करने वाले 'भूवलय 'शीर्षक ग्रंथ की रचना धवला टीका के पूर्ण होने के वर्ष (८१६ ई० या ७८० ई०) से ४४ वर्ष उपरान्त (८६० ई० या ८२४ ई०) पूर्ण की थी। फलतः यह नवीं शताब्दी ई० की कृति है।
यह विश्व का एकमात्र अंक लिपि में लिखित सर्वभाषामयी काव्य है। ६४ अंकों को एक विशेष नियम से अक्षरों में परिवर्तित करने पर सांगत्य छन्द युक्त कन्नड़ भाषा का काव्य प्राप्त होता है जिसके अक्षरों को भिन्न-भिन्न क्रमों से पढ़ने पर भिन्न-भिन्न भाषाओं के काव्य प्राप्त होते हैं। इन काव्यों में प्राचीन भारतीय दर्शन, साहित्य, कला एवं विज्ञान विषयक विपुल सामग्री निहित है। डा० एस० श्रीकान्त शास्त्री ने ग्रंथ के अध्याय १ से ३३ तक का सम्यक् अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला है (देखें पृ० १४२-१४३) कि इसमें कन्नड़ भाषा साहित्य, संस्कृत, पाली, प्राकृत, तामिल, तेलुगू आदि भाषाओं, भारतीय धर्मों, दर्शनों, भारत एवं विशेषत : कर्नाटक के राजनैतिक इतिहास, गणित, ज्योतिष, भूगोल-खगोल, रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र, आयुर्वेद, प्राणि विज्ञान एवं भाषाविज्ञान विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री है। रामायण, महाभारत,श्रीमद्भगवद् गीता तथा प्राचीन जैन स्तोत्रों एवं काव्यों के पाठ संशोधन भी इस ग्रंथ की सहायता से करना संभव हो सकता है । ग्रंथ की महत्ता का आकलन करते हुए भारत के प्रथम राष्ट्रपति महामहिम डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी ने इसे विश्व का आठवां आश्चर्य बताया था एवं इस अमूल्य निधि के संरक्षण हेतु अपने विशेष आदेश से इसकी माइक्रोफिल्म राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में सुरक्षित करायी।
लगभग सभी प्रमुख जैनाचार्यों ने अपने काल में प्रचलित भाषाओं में आगमों एवं महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रंथों की टोकायें, अनुवाद एवं व्याख्यायें लिखी थीं। आ० यतिवृषभ, आ० पूज्यपाद, आ० भट्ट अकलंक, आ. वीरसेन, आ० जिनसेन, आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का कृतित्व इसका ज्वलन्त प्रमाण है । बीसवीं सदी के महान् दि. जैनाचार्य आचार्यरत्न देशभुषण जी ने इसी परम्परा का निर्वाह करते हुए इस दुर्लभ उपेक्षित एवं अज्ञात ग्रंथ भू वलय के मंगल प्राभूत के प्रथम १४ अध्यायों का अंक लिपि से कन्नड़ भाषा में रूपान्तरण करने के उपरान्त हिन्दी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया है। यह अनुवाद उनके दोनों भाषाओं पर समान अधिकार तथा विषय वस्तु के गहन अध्ययन को प्रतिबिम्बित करता है। आगत विषयों को स्पष्ट करने हेतु प्रस्तुत की गई व्याख्यायें तथा टिप्पणियां उपयोगी हैं । आचार्य श्री द्वारा ग्रंथ की प्रस्तावना स्वरूप लिखा गया 'श्री भूवलय परिचय' ग्रंथकार के इतिवृत्त, ग्रंथ के स्वरूप, उसकी सामग्री के मूलस्रोत, प्राचीनता एवं मंगल प्राभूत के सभी अध्यायों की विषयवस्तु पर संक्षिप्त प्रकाश डालता है।
__ग्रंथ के सम्पादन के मध्य कई स्थानों पर पाठ अशुद्धि की समस्या उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है (देखें पृ. ४८)। इसका एक मुख्य कारण सम्पादनार्थ मात्र एक प्रति का उपलब्ध होना है। यह एकमेव प्रति भी मूल लेखक की न होकर किसी प्रतिलिपिकार द्वारा की गई प्रतिलिपि है । प्रकाशकों को एवं विद्वत जनों को इस ग्रंथ की अन्य प्रतियों की खोज का गम्भीर प्रयास करना चाहिए। मेरा सुझाव है कि
१-ग्रंथ के शेष भाग को शीघ्रातिशीघ्र अनुवादित कराकर उसके प्रकाशन की व्यवस्था होनी चाहिए। स्व० यलप्पा शास्त्री जी के अभाव की पूर्ति असंभव है किन्तु वर्तमान में आचार्य श्री का मार्गदर्शन हमें उपलब्ध है।
२-ग्रंथ में निहित आधुनिक विद्याओं (गणित, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, आदि) के ज्ञान के सकारात्मक लाभ प्राप्त करने हेतु विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों एवं भाषाविदों के संयुक्त दल द्वारा इस ग्रंथ का विस्तृत व्याख्याओं, टिप्पण एवं तुलनात्मक अध्ययन सहित सम्पादन होना चाहिए तथा सम्पूर्ण सामग्री का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित होना चाहिए।
आचार्य श्री ने अत्यन्त श्रमपूर्वक अपने अगाध ज्ञान का सदुपयोग करते हुए आधुनिक विद्वानों को भूवलय रूपी यह अनुपम उपहार दिया है। छपाई एवं साज-सज्जा सुन्दर है। ग्रंथ अत्यन्त उपयोगी एवं संग्रहणीय है।
सृजन-संकल्प
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