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________________ पारा सिद्ध किया जाता है, जो कार बताये हुए आकाश गमन और पाताल गमन दोनों में ठीक काम करता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न पुष्पों के रस से पारा सिद्ध किया जा सकता है। उससे भिन्न-भिन्न चामत्कारिक कार्य किए जा सकते हैं। इस प्रकार कार्यक्रम को बतलाने वाला यह भूवलय ग्रंथ है।' (१६४-१७२) पांचवें अध्याय के आरम्भ में गणित के नवमांक की महिमा वर्णित है। अंकों से अनेक भाषाएं बन जाती हैं। उन सब भाषाओं को एक राशि में बनाकर गणित के बंध में बांधते हुए जिनेन्द्र देव की दिव्य वाणी सात सौ भाषाओं द्वारा इस धर्मामृत कुम्भ में स्थापित हुई है। इतनी सूक्ष्मता गणित के कारण प्राप्त हुई है। इसीलिए अगले अध्याय अर्थात् छठे अध्याय में गणित शास्त्र को जीव के लिए मोक्ष देने वाला बताया है। उन्होंने इस प्रसंग में ऋग्वेद का भी उल्लेख किया है। उनके अन्यत्र कथन से संकेत मिलता है कि कोई अंकमय ऋग्वेद भी विद्यमान था। यह बड़ी भारी खोज का विषय होगा। ८२वें छन्द में वे कहते हैं “एक से लेकर नौ तक अंकों द्वारा द्वादशांग की उत्पत्ति होती है । उस नौ अंक में एक और मिलाने से उस दस अंक से ऋग्वेद की उत्पत्ति होती है। इसी को पूर्वानुपूर्वी तथा पश्चातानुर्वी कहते हैं। दशांग रूप वृक्ष की शाखा रूप ऋग्वेद है । इसलिए इस वेद का प्रचलित नाम ऋक् शाखा है।" यह उल्लेखनीय है कि जैनाचार्य प्रायः वेदों का उल्लेख नहीं करते किन्तु यहां वेदों की महिमा गाई है। हां, उसके मानव, देव और दन ज नाम से प्रकारों का उल्लेख करके उसके दनुज (हिंसा रूप) से सावधान किया गया है और आशीर्वाद दिया गया है कि इन वेदों द्वारा पशुओं की रक्षा, गो ब्राह्मण रक्षा तथा जैन धर्म की समानता सिद्ध हो । भूवलय का यह अंश जैन धर्म में क्रान्तिकारी प्रसंग है। सातवां अध्याय जिनेश्वर भगवान् की महिमा से आपूरित है। सब तीर्थंकरों को कुसुमबाण कामदेव का नाश करने वाला कहा है। कुसुमों का कई प्रकार से उल्लेख हुआ है । एक सौ पचासवें छन्द में अशोक वृक्ष के फूलों का वर्णन है। यदि इसे सिद्ध करना हो तो वृक्षों के क्षुद्र पुष्प न लेकर विशाल प्रफुल्ल पुष्प लेने चाहिए और उसी को फिर यदि रसमणि बनाना हो तो इन्हीं वृक्षों के क्षुद्र (मंजरी रूप) फूल लेना चाहिए । न्यग्रोध नाम के अशोक वृक्ष के फूल को विषपान की बाधा दूर करने वाला बताया गया है। पारे को घन रूप बनाना हो तो इन पुष्पों को काम में लेना चाहिए। यहां पारे की रससिद्धि के लिए गणितीय पद्धति तथा उससे प्राप्त पारलौकिक सिद्धि का आख्यान भी है। आठवें अध्याय में सिंहासन नाम के प्रतिहार्य रूप अंकों का वर्णन है और नन्दी गिरि पर्वत की अनेक प्रकार से महिमा गायी गई है तथा सिंह के समवशरण एवं गजेन्द्र निष्क्रीणतप आदि का वर्णन है। नौवें अध्याय का आरम्भ भगवान् जिनेन्द्र देव की शारीरिक दिव्यताओं से होता है । यह बड़ा विचित्र एवं अलौकिक है। जैसे भोजन न करते हुए भी उनका जीवित रहना, एक मुख होते हुए भी चार मुख दीखना, आंखों की पलकें न लगना, ओष्ट दांत तालु के बिना भगवान् की दिव्य ध्वनि निकलना, समवशरण में वाटिका के सभी जीवों को अभय प्रदान करना। फिर समवशरण (एक साथ सभी प्रकार के जीवों को उपदेश) की विद्या का उल्लेख है। भूवलय की विद्याओं, भाषाओं, उसके काव्य चक्रबन्धों तथा जैन धर्म की महत्ताओं का गायन है। इस अध्याय की भौगोलिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि विशेष महत्त्वपूर्ण है । दो सौ तीसवें छन्द में बताया है कि यह भारत लवण देश से घिरा हुआ है और इसी भारत देश के अन्तर्गत एक वर्द्धमान नामक महानगर था। उसके अन्तर्गत एक हजार नगर थे। उस देश को सौराष्ट्र कहते थे और सौराष्ट्र देश को कर्माटक (कर्नाटक) देश कहते थे। उस देश में मागध देश के समान कई जगह उष्ण जल का झरना निकलता था। उसके समीप कहीं-कहीं पर रमकूप (पारी कुआं) भी निकलते थे। सौराष्ट्र देश का पहले का नाम निकलिंग था। भारत का त्रितलि नाम इसलिए पड़ा क्योंकि भारत के तीन ओर समुद्र है । यह भूमि सकनड़ देश थी।' (२३०-२३४) दसवें अध्याय में अनेक विचित्रताओं का वर्णन है । जैसे, 'संसार में काले लोहे को विज्ञान विद्या से सोना बना सकते हैं पर इस भूवलय (ज्ञान) से उस स्वर्ण को धवल वर्ण बना सकते हैं।' इस अध्याय के प्रथमाक्षरों से बनने वाला प्राकृत अर्थ भी उद्धरणीय है 'ऋषिजनों में सुग्रीव, हनुमान, गवय, गवाक्ष, नील, महानील इत्यादि निन्नियानवें कोटि जैनों ने तुंगीगिरि पर्वत पर निर्वाण पद को प्राप्त कर लिया। उन सबको हम नमस्कार करें।' ग्यारहवां अध्याय रूपी द्रव्यागम, अरूपी द्रव्यागम एवं भूवलय की गणितीय महिमा के आख्यान से आरम्भ होता है। आगे चलकर ओउम्, जन, अंकाक्षर, दान, मोह-राग, जीव, शिवपद तथा सिद्धलोक से सम्बद्ध ज्ञान दिया गया है। बारहवें अध्याय का नाम 'ऋ' अध्याय है। इस अध्याय में मुनियों के संयम का वर्णन है । पहले छन्द में ही बारह तप गिनाते हुए दिगम्बर महामुनियों की संख्या तीन कम नौ करोड़ बतायी गई है । सेनगण की गुरु परम्परा का भी वर्णन है। लक्ष्मण द्वारा अपने भाई श्री राम के दर्शनार्थ एक पहाड़ पर भगवान् बाहुबली आकार के समान रेखाएं खींचना, स्याद्वादमुद्रा से अपने मन को बांधना; रेणुकादेवी के ऊपर उनके ही पुत्र परशुराम द्वारा फरसे के आघात की कथा है। आगे ऐसे आघात शस्त्र का वर्णन है जो सम्पूर्ण आयुधों को जीत लेता है। यह आयुध पारा मिलाकर किए हुए भस्म को शस्त्र के ऊपर लेप लगाने से तैयार होता है। आगे जाकर शोकरहित करने वाले नागवृक्ष, शिरीष, कुटकी, बेलपत्र, सुम्बूर, तेन्दु, अश्वत्थ, नन्दी, तिलक, आम, ककेली आदि वृक्षों की मिट्टी को रोगोपचार में प्रयुक्त करने का विधान है। मेष शृंग वृक्ष के गर्भ से प्राप्त मिट्टी द्वारा आकाशगमन की सिद्धि तथा दारु वृक्ष की जड़ से सोना बनने का उल्लेख है और इस विद्या को तथा रत्न, स्वर्ण, चांदी, पारा, लौह एवं पाषाण आदि सृजन-संकल्प ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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