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तो ठीक हैं पर परिनिष्ठित हिन्दी में उस रूप में प्रयुक्त नहीं होते यथा ऊन (शरीर से किचित् ऊन है। प०६६), फिजिक्स के लिए अणु विज्ञान (पृ० १४२), छन्द के लिए 'दोहों' शब्द का प्रयोग (पृ० १४२) और वह भी भगवद्गीता के प्रसंग में, भेड़ों के लिए भेड़िये शब्द का प्रयोग (पृ० १८६), बैठते के लिए मार्ग में 'तिष्ठते हैं' (पृ० १८८) इसी प्रकार लांछन शब्द का प्रयोग चिह्न के अर्थ में । हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से लिंग और वचनादि के कुछ प्रयोग भी चिन्त्य है। इतना होने पर भी आचार्य जी का हिन्दी अनुवाद कमाल का है और कमाल का है उनका पांडित्य । हो भी क्यों न ! वे स्वयं कुमुदेन्दु की परम्परा के आचार्य हैं।
ग्रंथ में जिन ७१८ भाषाओं का नामोल्लेख किया गया है उन सभी भाषाओं को आचार्य ने कैसे निबद्ध किया यह कहना कठिन है ।
आचार्य कुमुदेन्दु का विभिन्न भाषाओं में उनका पाण्डित्य तथा काव्य-रचना-कौशल निःसन्देह कमाल का था। इस ग्रंथ में छः हजार सूत्रों तथा छः लाख श्लोकों के रचने का उल्लेख है। "यह ग्रंथ मूलत: कन्नड़ी भाषा में छपा है। मुद्रित ग्रंथ के पद्यों में काव्य श्रेणिबद्ध है। प्रत्येक अध्याय में आने वाले कन्नड़ भाषा के आदि अक्षरों को ऊपर से लेकर नीचे पढ़ते जायं तो प्राकृत काव्य निकलता है और मध्य में सत्ताइसवें अक्षर को, ऊपर से नीचे पढ़ने पर संस्कृत काव्य निकलता है। इस तरह पद्यवद्ध रचना का अलग-अलग रीति से अध्ययन किया जाय, तो अनेक बंधों में अनेक भाषाएं निकलती हैं—ऐसा कुमुदेन्दु आचार्य कहते हैं। उदाहरण के लिए ग्रंथ के प्रथम खंड-मंगल प्राभूत के प्रथम अध्याय 'अ' को लिया जा सकता है। इसके प्रथम अक्षरों के मिलाने से जो प्राकृत छंद बनता है, वह निम्नलिखित है
अट्ट विहकम्म विमला णिटिटय कज्जा पणट्टसंसारा
दिट्टसयलत्थ सारा सिद्धआ सिद्धिन मम दिसनतु ॥ और बीच के अक्षरों से बना सुप्रसिद्ध श्लोक है
ओंकार बिन्दु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ।
कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः ।। कितनी विचित्र होगी कुमुदेन्दु आचार्य की भाषा-प्रतिभा और कितना विदग्धतापूर्ण होगा उनके कवि का काव्य-कौशल !
संस्कृत श्लोक कुमुदेन्दु जी की जैनाचार्योचित ओउम् के प्रति निष्ठा का प्रमाण भी है। वैसे तो आज का सामान्य कर्मकाण्डी पुरोहित या संस्कार कराने वाला ब्राह्मण भी इसी मन्त्र से ओउम् का पूजन कराता है। किन्तु वह ओउम के मर्म को शायद ही समझ पाता है। आचार्य ने ग्रंथ में बड़े विस्तृत रूप से ओउम् की महिमा प्रकाशित की है।
दूसरा अध्याय ज्ञान की शास्त्रीय विवेचना से आरम्भ होता है। उसे दो भागों में विभक्त किया गया है--सम्यक् ज्ञान तथा मिथ्या ज्ञान । सम्यक् ज्ञान-मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्य और केवल नाम से पांच प्रकार का तथा मिथ्या ज्ञान कुश्रुत, कुमति, कुअवधि नाम से तीन प्रकार का बताया गया है। ज्ञान से लोकोत्तर सिद्धियां संभव बताई गई हैं, यथा-'पाद औषधि' का विधान। इसे लेप करके व्यक्ति का आकाश में उड़ना सिद्ध किया गया है और यह घोषणा की गई है कि भूवलय के 'प्राणवायु पर्व' में जंगली कटहल के फूलों से इसके निर्माण की विधि स्पष्ट की गई है। वहीं विमान इत्यादि तैयार करने की विधि भी कही बताते हैं। अन्य ज्ञानों में कामकला, पुष्पायुर्वेद तथा गीता ज्ञान प्रमुख हैं। यहीं नेमि गीता, भगवद्गीता, महावीर गीता तथा कुमुदेन्दु गीता का उल्लेख है। यहीं पर दो अंकों से अंग्रेजी-अरबी-फारसी इत्यादि शब्द बनाने की विद्या तथा तीन अंकों से तीन अक्षरों वाले सभी भाषाओं के शब्द बनाने की विद्या अंकित है और यह मान्यता स्थापित की गई है कि अंक ही अक्षर हैं और अक्षर ही अंक हैं।
तीसरा अध्याय अध्यात्म योग की चर्चा से आरम्भ होता है। कहा गया है कि आर्य लोगों को योग का मंगलमय सम्वाद प्रदान करने वाला यह भूवलय ग्रंथ अक्षर विद्या में निर्मित न होकर केवल गणित विद्या में निर्मित महा सिद्धान्त है। यहां योग की चली आती परम्परा की व्याख्या करके उसकी महिमा स्थापित की गई है और बताया गया है कि कषाय को नाश करने वाला शुद्ध चरित्र योग ही है। चरित्र योग के कतिपय कर्म भी वर्णित हैं । अरहन्त परमेष्ठी के चार अघातिया कर्म बड़ी सुन्दर दृष्टान्त शैली में वर्णित हैं और दर्शन, ज्ञान और चरित्र को आत्मा के तीन अंग माना गया है। फिर योग और योगी की विस्तृत व्याख्यात्मक चर्चा है जो निस्सन्देह पढ़ने लायक है। १३५वें छन्द में स्पष्ट कहा गया है कि यह भूवलय योगियों का गुणगान करने वाला ग्रन्थ है।
चौथे अध्याय में भूवलय को अशरीर अवस्था अर्थात् मुक्ति अवस्था प्राप्त कराने वाला काव्य कहा गया है। यह काव्य तब का है जब श्री वृषभदेव ने यशस्वी देवी के साथ विवाह किया था। शुभ विचार तथा शुभ शब्द की दृष्टि से भी शब्द पर विचार व्यक्त है, इसीलिए ग्रंथ के पहले 'सिरि' शब्द अंकित है-आदौ सकार प्रयोगः सुखदः । यहीं सूक्ष्म तत्व का विश्लेषण है, जो बड़ा सारगभित है । अध्याय की समाप्ति से पूर्व पुष्प आयुर्वेद तथा पारे की सिद्धि का वर्णन है। उदाहरण के लिए निम्न कथन उल्लेखनीय है-पारा अग्नि का संयोग पाकर बढ़ जाता है परन्तु इस क्रिया से उड़ नहीं पाता । सर्वात्म रूप से शुद्ध हुए पारे को हाथ में लेकर अग्नि में भी प्रवेश किया जा सकता है। यदि आकाश स्फटिक मणि पर सिद्ध रसमणि सहित पुरुष बैठ जाए तो सूर्य के साथ-साथ आकाश में और पृथ्वी के अन्दर गमन कर सकता है अर्थात् आकाश में ऊपर उड़ सकता है और नीचे पृथ्वी के अन्दर घुसकर भ्रमण कर सकता है। गिरिकणिका नाम एक पुष्प है। इस पुष्प के रस से
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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