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________________ ग्रंथ शिरोमणि 'श्री भूवलय' -भारतीय मेधा, ज्ञान-विज्ञान-साहित्य-सामर्थ्य का अद्भुत उदाहरण समीक्षक : डॉ० बालकृष्ण अकिंचन सार्वभौम अध्यात्म-चेतना के धनी, धर्मप्राण, पूज्यपाद आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज लुप्त प्रायः ग्रंथराशि-गंगा के अभिनव भागीरथ हैं । यों तो अनेकानेक जैन तीर्थों के उद्धारक, स्कूल-कालिजों, औषधालयों, पुस्तकालयादिकों के संस्थापक, जीर्णोद्धारक आचार्यश्री को ग्रंथ गंगा तक सीमित करना एक भारी भूल होगी, किन्तु साहित्य के इस अकिचन विद्यार्थी की दृष्टि में उसी का मूल्य सर्वाधिक है। कारण, उनकी साहित्य-सर्जना एवं अनुवादन क्षमता के कारण ही आज का हिन्दी संसार तमिल, गुजराती, कन्नड़, बंगला आदि के अनेक सद्ग्रंथों के आस्वादन एवं अध्ययन का सौभाग्य प्राप्त कर पाया है। उनकी अनुवाद-साधना के परिणामस्वरूप ही हिन्दी का भक्ति साहित्य अन्यान्य अनेक भारतीय भाषाभाषियों को भक्ति-भागीरथी में रसावगाहन का पुनीत अवसर सुलभ करा रहा है। इतना सब कुछ होते हुए भी यदि वे कुछ न करते और एकमात्र श्री भूवलय ग्रंथराज के हिन्दी अनुवाद में ही तत्पर हुए होते, तो भी उनकी साहित्य-साधना, उसी प्रकार महिमामंडित मानी जाती जितनी कि आज मानी जा रही है। इसका कारण है श्री भूवलय ग्रंथ की महत्ता, उपयोगिता, गंभीरता, संश्लिष्टता एवं विविधता। श्री भूवलय ग्रंथ भारतीय मेधा, विशेषतया जैन मनीषियों के ज्ञान-विज्ञान-साहित्य-सामर्थ्य का एक अद्भुत उदाहरण है। विशाल भारत के प्रथम महामहिम राष्ट्रपति अजातशत्रु डॉ० राजेन्द्र प्रसाद ने इसे संसार का आठवां आश्चर्य घोषित किया था । ज्ञान-विज्ञान की इतनी शाखाओं तथा संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़ आदि अनेकानेक भाषाओं का एक साथ परिचय कराने वाला यह ग्रंथ सचमुच ही आठवां आश्चर्य है। भाषा को अंकों में लिखकर रचयिता ने इस बात का अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है कि आज से एक हजार वर्ष से भी पहले वर्तमान युग की कम्प्यूटर भाषा के समान ही भाषा को अंकों में लिखने की कोई समृद्ध परम्परा विद्यमान थी। हम यह बहुत बड़ी और सर्वथा नई बात कह रहे हैं। इस क्षेत्र में नवीन शोधों का श्रीगणेश होना चाहिए। सिरि भूवलय या श्री भूवलय नामक यह ग्रंथ स्वनामधन्य महापंडित श्रीयुत् कुमुदेन्दु आचार्य की कृति है। इस नाम के अनेक पूर्ववर्ती और परवर्ती आचार्य प्रकाश में आ चुके हैं, किन्तु अन्तः एवं बाह्य साक्ष्य के कतिपय निश्चित प्रमाणों के आधार पर यह निर्णय हो गया है कि श्री भूवलय के रचयिता, दिगम्बर जैनाचार्य कुमुदेन्दु का समय आठवीं शताब्दी से बाद का नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण अमोघवर्ष का अनेक बार नामोल्लेख है जिसने ८१४ से ८७७ ई० तक राज्य किया था। अत: स्पष्ट है कि श्री भूवलय एक हजार वर्ष से भी पुराना ग्रंथ है। यह समय लगभग वही है जब हिन्दी का उदय हुआ था। हिन्दी या हिन्दुवी शब्द उतना पुराना नहीं है। देवनागरी का प्रयोग बहुत पहले से मिल रहा है। यह एक सुखद आश्चर्य की बात है कि कुमुदेन्दु आचार्य ने भी भाषा परिगणन में अपने काल की जिन ७१८ भाषाओं का उल्लेख किया है उनमें देवनागरी भी एक है। ७१८ भाषाओं की पूरी नामावली, कुमुदेन्दु जी ने गिनाई है। इनमें से अनेक नामों से हम परिचित हैं, अनेक से अपरिचित । कुछ विचित्र नाम निम्नलिखित हैं चाणिक्य, पाशी, अमित्रिक, पवन, उपरिका, वराटिका, वजीद खरसायिका, प्रभूतका, उच्चतारिका, वेदनतिका, गन्धर्व, माहेश्वरी, दामा, बोलघी आदि। भाषाओं के कुछ नाम क्षेत्रादि से सम्बद्ध हैं। जैसे-सारस्वत, लाट, गौड़, मागध, बिहार, उत्कल, कान्यकुब्ज, वैस्मर्ण, यक्ष, राक्षस तथा हंस । इन सात सौ अट्ठारह भाषाओं में से अनेक आज भी जानी तथा लिखी पढ़ी जाती हैं । जैसे—संस्कृत, प्राकृत, द्रविड़, ब्राह्मी, तुर्की, देवनागरी, आंधी, महाराष्ट्र, मलयालम, कलिंग, काश्मीर, शौरसेनी, बाली, सौराष्ट्री, खरोष्ट्री, तिब्बति, वैदर्भी, अपभ्रंश, पैशाचिक, अर्धमागधी इत्यादि। अतः भाषाविज्ञान के लिए यह ग्रंथ एक नई चुनौती है। भाषाविज्ञान के साथ ही यह व्याकरण की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण होगा। कुमुदेन्दु आचार्य ने इसकी व्याकरणभिता स्वयं भी स्वीकार की है । सौभाग्य से उनकी अंकमयी सरस्वती का अनुवाद भी मुनिश्री के श्रम से बड़ा सटीक हुआ है। हां, अनुवाद में कुछ अटपटे शब्द प्रयोग में अवश्य आये हैं। वे संस्कृत आदि की परम्परा से सृजन-संकल्प ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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